वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऐलान कर दिया है कि वह इस साल लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की तरफ से दिए जा रहे टिकट से इनकार कर दिया है. एक न्यूज चैनल के साथ बातचीत में सीतारमण ने कहा कि उनके पास उतना पैसा नहीं है कि वह चुनाव लड़ सकें. बुधवार को उन्होंने कहा कि बीजेपी के मुखिया जेपी नड्डा ने उन्हें आंध्र प्रदेश या फिर तमिलनाडु से चुनाव लड़ने का विकल्प दिया था. लेकिन उन्होंने फंड की कमी के चलते उस ऑफर को ठुकरा दिया. जानिए आखिर भारत में चुनाव लड़ने के लिए कितनी रकम की जरूरत होती है और क्यों लोकसभा चुनाव भारत में महंगा समझा जाता है.
न्यूज एजेंसी पीटीआई ने सीतारमण के हवाले से लिखा, 'एक हफ्ते या दस दिनों तक मैंने इस पर काफी सोचा. इसके बाद मैं वापस गईं और मेरा जवाब न था. मेरे पास चुनाव लड़ने के लिए उस तरह का पैसा नहीं है.' उन्होंने आगे कहा, 'मुझे भी एक समस्या है चाहे वह आंध्र प्रदेश हो या तमिलनाडु, यह कई जीतने योग्य मानदंडों से भी जुड़ा सवाल होगा, क्या आप इस समुदाय से हैं या आप उस धर्म से हैं? क्या आप यहीं से हैं? मैंने कहा नहीं, मुझे नहीं लगता कि मैं यह कर पाऊंगी.' वरिष्ठ बीजेपी सांसद वर्तमान में कर्नाटक से राज्यसभा सांसद हैं. सीतारमण की टिप्पणियों ने इस सवाल पर ध्यान केंद्रित कर दिया है कि आखिर भारत में चुनाव लड़ने के लिए कितनी राशि की जरूरत होती है.
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भारत के चुनाव आयोग की तरफ से एक उम्मीदवार की तरफ से चुनाव पर खर्च किए जाने की सीमा निर्धारित होती है. साल 2022 में चुनाव आयोग ने चुनाव में खर्च की सीमा में संशोधन किया था. बड़े राज्यों में, एक नामांकित व्यक्ति प्रति लोकसभा क्षेत्र 95 लाख रुपये तक खर्च कर सकता है. छोटे राज्यों में उम्मीदवारों के लिए चुनाव खर्च की सीमा 75 लाख रुपये है.बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार 40 लाख रुपये का भुगतान कर सकते हैं. छोटे राज्यों के लिए सीमा 28 लाख रुपये है.
हर उम्मीदवार के नामांकन से लेकर चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक खर्च की गणना की जाती है. द हिंदू की एक रिपोर्ट के अनुसार इन चुनावी खर्चों में सार्वजनिक बैठकों, रैलियों, होर्डिंग्स, विज्ञापनों, पैम्फलेट, अभियान सामग्री आदि पर खर्च की गई राशि शामिल है. उम्मीदवारों को चुनाव खर्चों के लिए एक अलग अकाउंट बुक बनाए रखने और इन खर्चों को ईसीआई के पास दर्ज करने के लिए कहा जाता है.
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जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 10ए के तहत, गलत खाते या ईसीआई सीमा से अधिक खर्च करने पर उम्मीदवार को तीन साल तक के लिए अयोग्य ठहराया जा सकता है. उम्मीदवारों को चुनाव पूरा होने के 30 दिनों के भीतर चुनाव आयोग को अपना व्यय विवरण जमा करना होगा. पूर्व आईएएस अधिकारी रंगराजन आर ने द हिंदू के लिए लिखा, सीमा और कानून के बावजूद, सभी प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा मैदान में उतारे गए उम्मीदवार इन निश्चित रकमों से आगे निकल जाते हैं.
चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को पोल पैनल के पास एक सिक्योरिटी अमाउंट जमा करना होता है. लोकसभा चुनाव के लिए सामान्य उम्मीदवारों के लिए यह राशि 25,000 रुपये तय की गई है, जबकि अनुसूचित जाति और जनजाति के उम्मीदवारों को 12,500 रुपये का भुगतान करना होगा. विधानसभा चुनाव में सामान्य वर्ग के उम्मीदवार 10,000 रुपये और एससी/एसटी उम्मीदवार 5,000 रुपये जमा करते हैं.
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम यह सुनिश्चित करने के लिए सिक्योरिटी अमाउंट डिपॉजिट कराया जाता है कि सिर्फ गंभीर उम्मीदवार ही नामांकन दाखिल करें. अगर कोई उम्मीदवार निर्वाचन क्षेत्र में डाले गए वैध वोटों की कुल संख्या के छठे हिस्से से कम हासिल करता है तो ईसीआई द्वारा यह सुरक्षा जमा राशि जब्त कर ली जाती है.
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जबकि चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के खर्च की कोई सीमा नहीं है. साल 2019 के चुनावों के दौरान, बीजेपी की तरफ से घोषित आधिकारिक खर्च 1264 करोड़ रुपये था, जबकि कांग्रेस द्वारा 820 करोड़ रुपये था. साल 2019 में जारी एक अध्ययन में उस वर्ष के लोकसभा चुनावों को अब तक का सबसे महंगा चुनाव बताया गया था.
एक निजी थिंक टैंक सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) की तरफ से हुई स्टडी के मुताबिक साल 2019 में राजनीतिक दलों ने चुनावों पर लगभग 55 से 60 हजार करोड़ रुपये तक खर्च किए गए थे जिसमें बीजेपी का हिस्सा कुल खर्च का 45 फीसदी था. कांग्रेस की हिस्सेदारी लगभग 15-20 प्रतिशत थी.
पार्टियों द्वारा अभियानों और प्रचार पर 20000 करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए गए. करीब 5000-6000 करोड़ रुपये लॉजिस्टिक्स पर और 3000 करोड़ रुपये से ज्यादा की रकम बाकी उद्देश्यों के लिए खर्च की गई थी. चुनाव आयोग की तरफ से अनुमानिम औपचारिक प्रचार पर खर्च की गई राशि 12000 करोड़ रुपये थी. सीएमएस का अनुमान है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में एक लाख करोड़ रुपये तक का भारी खर्च हो सकता है.
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