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सवाल हैसियत का नहीं, इसका है कि ये सभी कांग्रेस से जा क्यों रहे हैं

सवाल हैसियत का नहीं, इसका है कि ये सभी कांग्रेस से जा क्यों रहे हैं

नेता कांग्रेस छोड़ रहे हैं और बीजेपी उन्हें लपक रही है. वह भी ऐन लोकसभा चुनाव के वक्त. ऐसे में क्या कांग्रेस को सोचने की जरूरत नहीं है कि उसे छोड़ने वाले नेताओं की कुछ तो खासियत जरूर होगी जिसे बीजेपी भुना रही है. लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि उसी खासियत को कांग्रेस नहीं देख पाई.

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सवाल हैसियत का नहीं सवाल हैसियत का नहीं

एक दिन सुबह उठते ही विजेंदर सिंह को लगता है कि वो सही रास्ते पर नहीं हैं. ‘सही रास्ता’ उनको बीजेपी ले जाता है. विजेंदर ओलिंपिक मेडल जीते बॉक्सर हैं, जिनकी शादी में राहुल गांधी गए थे. जिनके बारे में कहा जाता रहा है कि बिना अपॉइंटमेंट के जो लोग राहुल से मिल सकते हैं, उनमें विजेंदर का नाम है. अगली सुबह गौरव वल्लभ को लगता है कि वो सनातन के विरोधियों के साथ नहीं खड़े हो सकते. उनका ‘सनातन धर्म’ उन्हें किस पार्टी के दरवाजे ले जाने वाला था, यह बताने की जरूरत नहीं है. कुछ ही घंटों में उन्होंने बीजेपी जॉइन कर ली. गौरव वल्लभ को कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का करीबी माना जाता रहा है. खड़गे जब पार्टी अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे थे, तो उनका कैंपेन गौरव वल्लभ ही देख रहे थे.

कांग्रेस को करना चाहिए विचार

इन्हीं दो दिनों के भीतर संजय निरुपम पर भी फैसला होता है. निरुपम दावा करते हैं कि उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का फैसला किया है. पार्टी कहती है कि उन्होंने निष्कासित किया है. जो भी हो, दोनों का अलगाव हो गया है. निरुपम महाराष्ट्र राजनीति में लंबे समय से कांग्रेस का उत्तर भारतीय चेहरा रहे हैं.

चुनाव का समय है. इस समय लोग आते हैं, जाते हैं. इसमें ताज्जुब नहीं होता. लेकिन कांग्रेस से जिस तरह लोग जा रहे हैं और जिस तरह के सवाल उठाकर जा रहे हैं, वह जरूर विचार करने लायक है. हालांकि यह विचार कांग्रेस को करना चाहिए. लेकिन ऐसा लगता नहीं कि वो इस मूड में है.

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बताई जा रही है हैसियत 

कोई भी जाता है, तो कुछ समय में सोशल मीडिया पर बताया जाने लगता है कि कांग्रेस ने उसके लिए क्या कुछ नहीं किया. उसने कांग्रेस के लिए कुछ नहीं किया और वह बगैर जनाधार वाला नेता है. यह भी बताया जाता है कि ये लोग तो चुनाव हार चुके हैं. कुछ हद तक सच भी है. लेकिन अगर विजेंदर सिंह और गौरव वल्लभ बगैर जनाधार वाले नेता हैं, तो इनको बगैर मेरिट के किसने ऊपर आने दिया. और जहां तक चुनाव हारने की बात है तो राहुल गांधी भी अमेठी से हारे ही थे और इस बार उस सीट से कौन लड़ेगा, अब तक तय नहीं है.

जो जा रहे हैं, वो अगर अयोग्य हैं, तो उन्हें आगे किसने बढ़ाया. जिसने बढ़ाया, क्या उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है? और अगर वो योग्य हैं, तो उन्हें जाने से रोकना क्या पार्टी नेताओं की जिम्मेदारी नहीं है? आखिर हर कोई क्यों यह कहकर जा रहा है कि पार्टी जमीन से कट चुकी है. क्या बात इस पर नहीं होनी चाहिए कि यह आरोप सच है या नहीं? खासतौर पर उत्तर भारत में? बजाय इसके कि सोशल मीडिया पर उस इंसान की हैसियत बताई जाए जो कांग्रेस छोड़कर जा रहा है और जिसे दस साल से सत्ता में बैठी बीजेपी अपने साथ ले रही है. 

पार्टी में नहीं दिख रहा भविष्य 

विजेंदर के मथुरा से लड़ने की चर्चाएं थीं. वह जीत पाते, इसे लेकर कांग्रेस को भी शक ही होगा. विजेंदर दिल्ली से चुनाव लड़ और हार चुके हैं. हरियाणा में वो भिवानी से आते हैं और अभी गुड़गांव में रहते हैं. बीजेपी हरियाणा की सभी सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर चुकी है. बाकी अभी ऐसी शायद ही कोई सीट हो, जहां से वो अपने बूते चुनाव जीत पाएं. इसके बाद भी बीजेपी ने उन्हें लिया है. वो पार्टी जो जीत के लिए आश्वस्त है. इसके बावजूद कुछ वोटों का फायदा होने के लिए भी वो किसी को अपनी पार्टी में लेने को तैयार है. दूसरी तरफ दस साल से जो पार्टी सत्ता से बाहर है, उससे जुड़े लोग लगातार सामने वाले की हैसियत पूछ रहे हैं.

हर कोई मानेगा गौरव वल्लभ ने प्रवक्ता के तौर पर बहुत अच्छा काम किया था. वो फैक्ट्स के साथ आते थे. लेकिन अचानक उनका टीवी स्क्रीन पर दिखना बंद हो गया. चुनाव लड़े और बहुत सारे कांग्रेसियों की तरह हार गए. उसके बाद से सार्वजनिक मंच पर नहीं दिखे. अब ‘सनातनी’ होने की बात करके कांग्रेस छोड़ गए हैं. ‘सनातनी होने’ और ‘रात के सोए का सुबह सही रास्ते पर निकल जाने’ का सिलसिला तब तक चलता रहेगा, जब तक लोगों को इस पार्टी में अपना भविष्य नहीं दिखेगा. ...और जिम्मेदारियां तय नहीं होंगी. हो सकता है कि पार्टी के भीतर सब सही हो, जैसा पार्टी से जुड़े लोग दावा करेंगे. लेकिन कम से कम बाहर बैठकर कुछ सही नहीं दिख रहा है.