Gajar Ghas: पार्थेनियम घास यानी गाजर घास फसलों के लिए जितनी खतरनाक है, उतनी ही इंसानों और पशुओं के लिए भी है. इसे कांग्रेस घास, सफेद टोपी, चटक चांदनी, गंधी बूटी आदि नामों से भी जाना जाता है. खरपतवार अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर के मुताबिक इस खरपतवार से खाद्यान्न फसलों की पैदावार में लगभग 40 प्रतिशत तक की कमी आंकी गई है. इस गाजर घास के लगातार संपर्क में आने से मनुष्यों में डरमेटाइटिस, एक्जिमा, एलर्जी, बुखार, दमा आदि जैसी बीमारियां हो जाती हैं. दुनिया में यह गाजर घास भारत के अलावा 38 अन्य देशों जैसे अमेरिका, मैक्सिको, वेस्टइंडीज, नेपाल, चीन, वियतनाम, आस्ट्रेलिया आदि देशों के विभिन्न भूभागों में भी फैली हुई है. इससे केवल फसलों की नहीं बल्कि इंसानी स्वास्थ पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.
खरपतवार का हमारे देश में प्रवेश 1955 में अमेरिका से आयात किए गए गेहूं के साथ हुआ था. लेकिन बहुत कम समय में ही यह गाजर घास पूरे देश में एक भीषण प्रकोप की तरह लगभग 350 लाख हेक्टेयर भूमि पर फैल गई. गाजर घास के पौधे में हर वातावरण में उगने की अभूतपूर्व क्षमता होती है. इसके बीज प्रकाश और अंधेरे दोनों ही स्थितियों में लगातार अंकुरित होते रहते हैं. यह किसी भी प्रकार की मिट्टी पर उग सकती है, चाहे वह अम्लीय हो या क्षारीय. इसलिए, गाजर घास के पौधे समुद्र तटीय क्षेत्रों और मध्यम से कम वर्षा वाले क्षेत्रों के साथ-साथ जलमग्न धान और चट्टानी क्षेत्रों में उग जाते हैं. गाजर घास के पौधे खाली जगहों, अप्रयुक्त जमीन, औद्योगिक क्षेत्रों, सड़कों, रेलवे लाइनों आदि पर पाए जाते हैं. इसके अलावा इसका प्रकोप खाद्यान्न, दलहन, तिलहन फसलों, सब्जियों और बागवानी वाली फसलों में भी देखा जाता है. भारत में इसका प्रसार सिंचित की अपेक्षा असिंचित भूमि में अधिक देखा गया है.
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यह एक वार्षिक पौधा है, जिसकी ऊंचाई लगभग 1.5 से 2.0 मीटर होती है और इसकी पत्तियां गाजर के पत्तों की तरह दिखती हैं. प्रत्येक पौधा लगभग 5,000 से 25,000 बीज पैदा कर सकता है. इसके बीज काफी महीन होते हैं, पककर जमीन पर गिरने के बाद नमी पाकर दोबारा अंकुरित हो जाते हैं. गाजर घास का पौधा अपना जीवन चक्र लगभग 03-04 महीने में पूरा कर लेता है. इस प्रकार यह एक साल में 02-03 पीढ़ियां पूरी कर लेता है. चूंकि यह पौधा प्रकाश और तापमान के प्रति उदासीन है, इसलिए यह पूरे साल बढ़ता और फलता रहता है. गाजर घास का प्रसार और वितरण मुख्यतः इसके सूक्ष्म बीजों के माध्यम से होता है. इसके बीज बहुत महीन, हल्के और पंखदार होते हैं. सड़क और रेल यातायात के कारण यह पूरे भारत में आसानी से फैल गया है. नदियों, नहरों और सिंचाई जल के माध्यम से भी गाजर घास के महीन बीज आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंच जाते हैं.
खरपतवार अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर के अनुसार इस खरपतवार द्वारा खाद्यान्न फसलों की पैदावार में लगभग 40 प्रतिशत तक की कमी आंकी गई है. पौधे के रासायनिक विश्लेषण से पता चलता है कि इसमें "सेस्क्यूटरपिन लैक्टोन" नामक विषाक्त पदार्थ पाया जाता है जो फसलों के अंकुरण और वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है. इस गाजर घास के लगातार संपर्क में आने से मनुष्यों में डरमेटाइटिस, एक्जिमा, एलर्जी, बुखार, दमा आदि जैसी बीमारियां हो जाती हैं. पशुओं के लिए यह गाजर घास अत्यधिक विषाक्त होती है. इसे खाने से पशुओं में अनेक प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं और दुधारू पशुओं के दूध में कड़वाहट के साथ-साथ दूध उत्पादन में भी कमी आने लगती है.
खरपतवार अनुसंधान निदेशालय, जबलपुर के अनुसार इस शत्रु घास पार्थेनियम को खत्म करने के लिए एट्राजीन, अलाक्लोर, ड्यूरान, मेट्रिवुजिन, 2,4-डी का प्रयोग करना चाहिए. जिस भूमि से सभी खरपतवार समाप्त करना हो और फसल न हो, तो ग्लाइफोसेट का प्रयोग करना चाहिए. 10 से 15 मिलीलीटर दवा को एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें, इससे गाजर घास नष्ट हो जाती है. अगर अन्य पौधों को बचा रहे हैं तो केवल गाजर घास को नष्ट करने के लिए मैट्रिकुजिन 03 से 05 मिली या 2,4-डी दवा 10 से 15 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए.
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गाजर घास का नियंत्रण उनके प्राकृतिक शत्रुओं, मुख्यतः कीटो, रोग के जीवाणुओं और वनस्पतियों द्वारा किया जा सकता है. मेक्सिकन बीटल नामक कीट गाजर घास को खाने वाला कीट है जिसे गाजर घास से ग्रसित स्थानों पर छोड़ देना चाहिए. इस कीट के लार्वा और वयस्क पत्तियों को खाकर पौधे को सुखा देते हैं. गाजर घास को फूल आने के पहले उखाड़ कर जला देना चाहिए या इसका कंपोस्ट बना देना चाहिए.
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