Basmati: सरकार इस फंगीसाइड से हटाए प्रतिबंध, बासमती किसानों की दो मुश्किलों का होगा समाधान

Basmati: सरकार इस फंगीसाइड से हटाए प्रतिबंध, बासमती किसानों की दो मुश्किलों का होगा समाधान

बासमती किसानों के लिए एक बहुत अच्छी खबर है. भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) पूसा के पूर्व निदेशक ने बताया है कि अगर सरकार एक खास फंगीसाइड पर से रोक हटा दे, तो किसानों की दो सबसे बड़ी समस्याएं हल हो जाएंगी. पहला किसान अपनी बासमती फसल को 'गर्दन तोड़' जैसी गंभीर बीमारी से बचा पाएंगे. यह बीमारी फसल को पूरी तरह बर्बाद कर देती है. दूसरा ये कि बासमती चावल के निर्यात में आने वाली रुकावटें भी कम होगी.

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Basmati: सरकार इस फंगीसाइड से हटाए प्रतिबंध, बासमती किसानों की दो मुश्किलों का होगा समाधान एक खास फंगीसाइड से हल होंगी दो समस्याएं

भारत का विश्व-प्रसिद्ध बासमती चावल उगाने वाले किसान आज एक बड़ी दुविधा में फंसे हैं. उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है बासमती की फसल में लगने वाली 'गर्दन तोड़' यानि ब्लास्ट बीमारी. ये एक बहुत ही विनाशकारी फंगस वाली बीमारी है. यह दानों की गुणवत्ता खराब कर देती है और पैदावार को भारी नुकसान पहुंचाती है. सालों से किसान इस बीमारी को रोकने के लिए 'ट्राईसाइक्लाजोल' नाम की एक बहुत असरदार दवा का इस्तेमाल करते थे. लेकिन अब यही दवा निर्यात के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट बन गई है. क्योकि यूरोप जैसे बड़े विदेशी बाजारों ने ट्राईसाइक्लाजोल पर लगभग पाबंदी लगा दी है. इस दवा के लिए अधिकतम अवशेष सीमा (MRL) को घटाकर 0.01 PPM कर दिया गया है. इसे ऐसे समझें कि 100 किलो चावल में सिर्फ 1 ग्राम दवा का अंश है. यह सीमा इतनी ज्यादा सख्त है कि अगर चावल में दवा का नाम मात्र भी अंश मिलता है, तो पूरा का पूरा कंसाइनमेंट खारिज कर दिया जाता है.

इसका मतलब यह हुआ कि इस दवा का इस्तेमाल करने वाले किसान की फसल का निर्यात होना असंभव है, क्योंकि रिजेक्ट होने का खतरा 100 फीसदी रहता है. इस गंभीर समस्या पर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक, डॉ.ए.के. सिंह जिनका देश में बासमती धान के विकास और नई किस्मों की खोज में अहम योगदान रहा है. वे भी इस स्थिति पर अपनी चिंता जताते हैं. वह बताते हैं कि ट्राईसाइक्लाजोल पर प्रतिबंध लगने से किसानों के सामने एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति पैदा हो गई है. अगर वे इस दवा का इस्तेमाल करते हैं, तो उनकी फसल निर्यात में रिजेक्ट हो जाएगी और अगर नहीं करते हैं, तो ब्लास्ट यानि 'गर्दन तोड़' रोग के कारण फसल और उपज नुकसान होने का डर रहता है. लेकिन डॉ.ए.के. सिंह ने इसके लिए एक बेहतर विकल्प बताया है. 

टेबुकोनाज़ोल 'सुरक्षित' विकल्प

डॉ. ए.के. सिंह के अनुसार, बासमती के गर्दन तोड़ रोग के नियंत्रण के लिए वैज्ञानिकों ने ट्राईसाइक्लाजोल का एक बेहतरीन विकल्प टेबुकोनाज़ोल बताया है. इसका सबसे खास लाभ इसकी अधिकतम अवशेष सीमा (MRL) है. यूरोपीय संघ में टेबुकोनाज़ोल की स्वीकार्य MRL 1.5 पीपीएम है, जो ट्राईसाइक्लाजोल की MRL से 150 गुना ज़्यादा है, जो कि बहुत बड़ा अंतर है और बासमती निर्यात के लिए उगाने वाले किसानों को एक बेहतर विकल्प प्रदान करता है. इसके प्रयोग से किसान न केवल गर्दन तोड़ रोग पर प्रभावी नियंत्रण पा सकते हैं, बल्कि निर्यात खारिज होने के डर से भी मुक्त हो जाते हैं. यह घरेलू मानकों पर भी खरा उतरता है, क्योंकि भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (FSSAI) ने भी चावल के लिए इसकी MRL 1.5 पीपीएम ही तय की है. हालांकि, इन स्पष्ट फायदों के बावजूद एक विरोधाभास स्थिति उत्पन्न हो गई है. हाल ही में बासमती धान की गुणवत्ता में सुधार और निर्यात को बढ़ावा देने के उद्देश्य से जिन 11 कीटनाशकों और फफूंदनाशकों पर अस्थायी प्रतिबंध लगाया गया है, दुर्भाग्यवश उनमें टेबुकोनाज़ोल भी शामिल है.

टेबुकोनाजोल से प्रतिबंध हटे

डॉ. ए.के. सिंह कहना हैं कि टेबुकोनाजोल एक शानदार समाधान तो है, लेकिन इसके उपयोग में एक छोटी सी सरकारी बाधा है. फिलहाल, भारत में इसे बासमती धान पर छिड़काव के लिए प्रतिबंधित दवाओं की सूची में रखा गया है. उनकी सरकार से यह अपील है कि बासमती चावल को इस प्रतिबंध से बाहर किया जाए. किसानों को कानूनी तौर पर टेबुकोनाजोल का उपयोग करने की अनुमति मिलनी चाहिए ताकि वे अपनी फसल को सुरक्षित रख सकें और निर्यात भी कर सकें. बासमती के धान की खेती सुनहरे भविष्य के लिए हमें पुरानी और प्रतिबंधित दवाओं को छोड़कर, नए वैज्ञानिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य विकल्पों को अपनाना होगा. सही जानकारी और सही दवा का चयन करके किसान न केवल अपनी फसल बचाएंगे, बल्कि उनकी मेहनत की उपज दुनिया के हर बाजार में सम्मान के साथ बिकेगी.

गर्दन तोड़ रोग - बासमती का दुश्मन

गर्दन तोड़' या 'ब्लास्ट' रोग बासमती धान सहित धान की दूसरी फसलों के लिए भी एक बहुत ही खतरनाक बीमारी है, जो किसानों को भारी आर्थिक नुकसान पहुंचाती है. यह बीमारी मुख्य रूप से मौसम में अचानक बदलाव और हवा में ज़्यादा नमी के कारण फैलती है. खासकर जब रात का तापमान 20-25 डिग्री सेल्सियस के आसपास हो, तो इसका खतरा बढ़ जाता है. शुरुआत में पत्तियों पर आंख या नाव के आकार के भूरे-बैंगनी धब्बे बनते हैं, जिनका बीच का हिस्सा राख जैसा दिखता है. धीरे-धीरे ये धब्बे बढ़कर पूरी पत्ती को सुखा देते हैं. रोग बढ़ने पर पौधे के तने की गांठें काली पड़कर कमजोर हो जाती हैं. इससे पौधा वहीं से टूटकर नीचे की ओर झुक जाता है. सबसे ज़्यादा नुकसान तब होता है जब बालियां निकलती हैं. इस रोग के कारण बाली की गर्दन (डंठल) काली होकर गल जाती है. इससे बालियों में दाने भर नहीं पाते, वे हल्के और खोखले दाने की क्वालिटी खराब हो जाती हैं. दानों की प्रभावित बालियां पूरी तरह सूखकर सफेद हो जाती हैं और नीचे लटक जाती हैं. इसी अवस्था को 'गर्दन तोड़' कहा जाता है, जिससे पूरी पैदावार बर्बाद हो सकती है.

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