Pulses and Oilseed: योगी सरकार की मंशा वर्ष 2026-2027 तक 'दलहन' की खपत के मामले में उत्तर प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने की है. इस चुनौतीपूर्ण काम के लिए सरकार ने मुकम्मल रणनीति भी तैयार की है. इसमें प्रति हेक्टेयर उपज और फसल क्षेत्र में वृद्धि भी शामिल है. उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश दलहन का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता राज्य है. पर, अभी उपभोग का आधा ही उत्पादन प्रदेश में होता है. रणनीति के अनुसार तय समयावधि में प्रति हेक्टेयर उपज 14 से बढ़ाकर 16 कुंतल करने का है. कुल उपज का लक्ष्य 30 लाख टन है. इसके अलावा करीब 1.75 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त रकबे को दलहन की फसलों से आच्छादित करने की भी तैयारी है. सरकार इसके लिए दलहन की परंपरागत फसलों की उन्नत और अधिक उपज देने वाली प्रजातियों के बीज उपलब्ध कराएगी. कुछ प्रगतिशील किसानों के वहां इनका प्रदर्शन भी होगा. किसानों को बड़ी संख्या में बीज के निशुल्क मिनीकिट भी दिए जाएंगे. साथ ही फोकस कम समय में होने वाली मूंग, उर्द (उड़द) आदि की फसलों पर होगा. इनकी सहफसली खेती को भी बढ़ावा दिया जाएगा.
इसके अलावा असमतल भूमि पर स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणाली का प्रयोग करते हुये उत्पादन में वृद्धि, फरो एंड रिज मेथड से खेती कर उत्पादन में वृद्धि और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीद की गारंटी भी सरकार दे रही है. दरअसल खाद्यान्न में रिकॉर्ड उत्पादन के बाद सरकार अब खाद्यान्न सुरक्षा से एक कदम आगे पोषण सुरक्षा के बारे में सोच रही है. इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका दलहनी फसलों की होगी. वजह आम आदमी, खासकर शाकाहारी लोगों के लिए प्रोटीन का एक मात्र स्रोत दाल ही है. खपत की तुलना में पैदावार कम होने से अक्सर कुछ वर्षों के अंतराल पर दाल के दाम सुर्खियों में रहते हैं. ऐसा होने पर आम आदमी के थाल की दाल पतली हो जाती है. गरीब के थाल से तो गायब है.
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ऐसा न हो इसके लिए योगी सरकार ने यह मुकम्मल कार्ययोजना तैयार की है. इस पर काम तो योगी सरकार के पहले कार्यकाल में ही शुरू हो गया था. नतीजतन 2016-17 से 2020-21 के दौरान दलहन का उत्पादन 23.94 मीट्रिक टन से बढ़कर 25.34 लाख मीट्रिक टन हो गया. इस दौरान प्रति हेक्टेयर उत्पादकता 9.5 कुंतल से बढ़कर 10.65 कुंतल हो गई. हालांकि यह प्रदेश की खपत का महज 45 फीसद है.
भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल का उत्पादक, उपभोक्ता और आयतक है. सर्वाधिक आबादी के नाते इस उपभोग का सर्वाधिक हिस्सा यूपी का ही है. ऐसे में पूरे दुनिया के दाल उत्पादक देशों (कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका, टर्की,और म्यानमार) की नजर न केवल भारत और उत्तर प्रदेश के पैदावार बल्कि छह महीने के भंडारण पर भी रहती है. ऐसे में अगर पैदावार कम है तो यहां की भारी मांग के मद्देनजर अतंरराष्ट्रीय बाजार में दाल यूं ही तेज हो जाती है.
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इस पर रुपये के मुकाबले डॉलर की क्या स्थिति है, इसका भी बहुत असर पड़ता है. रुपये के मुकाबले अगर डॉलर के दाम अधिक हैं तो आयात भी महंगा पड़ता है. इस तरह दाल के आयात में देश को बहुमूल्य विदेशी मुद्रा भी खर्च करना होता है. अगर उत्तर प्रदेश दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भर हो जाय तो विदेशी मुद्रा भी बचेगी.
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