
धान की पारंपरिक रोपाई विधि के बदलकर किसान अब सीधी बुवाई विधि की ओर रुख कर रहे हैं. यह बदलाव इसलिए हो रहा है क्योंकि रोपाई विधि में अधिक पानी, मजदूरी और समय लगता है. बासमती धान की रोपाई में एक किलोग्राम धान उत्पादन के लिए लगभग 3000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है. आज के समय में देश के कई हिस्सों में पानी की गंभीर समस्या हो गई है और कृषि में मजदूरों की उपलब्धता भी कम होती जा रही है. रोपाई विधि में नर्सरी उगाने, पौधरोपण और पडलिंग की क्रियाएं शामिल होती हैं, जिनमें मजदूरों की जरूरत होती है. गैर-कृषि क्षेत्रों में मजदूरों की मांग बढ़ने के कारण, कृषि के लिए मजदूरों की उपलब्धता और घट गई है. इन परिस्थितियों में सीधी बुवाई विधि एक उपयुक्त विकल्प के रूप में उभरी है.
सीधी बुवाई में 40 से 60 प्रतिशत तक मजदूरों की बचत होती है, रोपाई के झंझट से मुक्ति मिलती है और पानी की लगभग 12 से 35 प्रतिशत तक बचत होती है. इसके अलावा, मीथेन गैस का उत्सर्जन 6 से 92 प्रतिशत तक कम होता है और खेती की लागत में 16 से 32 प्रतिशत तक बचत होती है. लेकिन इतने लाभ के बावजूद, धान की सीधी बुवाई में खरपतवार की समस्या ज्यादा आती है, जिससे किसानों को ज्यादा खरपतवारनाशी दवाओं का छिड़काव करना पड़ता है, जो धान की बढ़वार और उपज दोनों को प्रभावित करता है.
बासमती धान की खेती करने वाले किसानों के सामने खरपतवार की समस्या एक बड़ी चुनौती रही है. यह समस्या लगभग 20 से 21 प्रतिशत तक उपज को प्रभावित करती है और खरपतवार कीट और रोगों को बढ़ावा देती है, जिससे पौधे कमजोर हो जाते हैं. किसान खरपतवारनाशी दवाओं का छिड़काव करते हैं, लेकिन ये दवाएं खरपतवार के साथ-साथ धान की फसल को भी प्रभावित करती हैं. इस समस्या का समाधान निकालने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), पूसा, दिल्ली के वैज्ञानिकों ने दो नई बासमती धान की किस्में विकसित की हैं. IARI के डायरेक्टर डॉ. एके सिंह के अनुसार इन नई किस्मों में एक जीन स्थानांतरित किया गया है जो शाकनाशी दवाओं के प्रति प्रतिरोधी है. इसलिए, जब किसान शाकनाशी का छिड़काव करते हैं, तो केवल खरपतवार मरते हैं, धान के पौधे नहीं और नही धान के पौधे पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.
IARI के डायरेक्टर डॉ. एके सिंह के नेतृत्व में हर्बिसाइड टॉलरेंट यानी खरपतवारनाशी दवा के प्रति प्रतिरोधी क्षमता वाली नई किस्म पूसा बासमती 1985 को विकसित किया गया है. पूसा बासमती-1509 को सुधार कर बनाई गई इस किस्म में उत्परिवर्तित AHAS एलील जीन है, जो इमाज़ेथापायर शाकनाशी के प्रति धान के पौधों को प्रतिरोधी बनाता है. यह किस्म बुवाई के बाद 115 से 120 दिनों में तैयार हो जाती है और इसकी औसत उपज 21 कुंतल प्रति एकड़ है. इसे दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के GI क्षेत्र के लिए जारी किया गया है. इस किस्म के उपयोग से सीधी बुवाई विधि (DSR) में खरपतवार का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकेगा, जिससे बासमती चावल की खेती की लागत कम हो जाएगी.
पूसा बासमती 1979 किस्म भी IARI के डायरेक्टर नेतृत्व में पूसा बासमती-1121 को सुधार कर बनाई गई है. इस किस्म में उत्परिवर्तित AHAS एलील जीन है, जो धान के पौधों को खरपतवार नाशी दवा के प्रति प्रतिरोधी बनाता है. यह किस्म बुवाई के बाद 130-133 दिनों में तैयार हो जाती है और इसकी औसत उपज 18.30 कुंतल प्रति एकड़ है. इसे दिल्ली, पंजाब और हरियाणा के GI क्षेत्र के लिए जारी किया गया है. यह किस्म धान की सीधी बुवाई के लिए काफी उपयुक्त है.
इन दोनों किस्मों के उपयोग से सीधी बुवाई विधि (DSR) में खरपतवार का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकेगा, जिससे बासमती चावल की खेती की लागत कम हो जाएगी. इसके अलावा, इन किस्मों में पारंपरिक विधि की तुलना में कम खरपतवारनाशी दवा की जरूरत होती है, इसके अलावा, ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में 35 प्रतिशत तक की कमी होती है क्योंकि इस प्रक्रिया में पानी जमा नहीं होता. रोपाई श्रम लागत, जो लगभग ₹3,000 प्रति एकड़ है, भी बच जाती है. कुल मिलाकर, प्रति एकड़ कम से कम ₹4,000 की बचत होती है.और ये पर्यावरणीय दृष्टि से भी सुरक्षित हैं.
डॉ. एके सिंह के अनुसार धान की खेती का पारंपरिक तरीका पौधों को पानी से भरे खेत में रोपने पर निर्भर करता है, जिसके लिए एक किलोग्राम बासमती चावल के उत्पादन के लिए लगभग 3,000 लीटर पानी की जरूरत होती है. DSR में पानी की 35 प्रतिशत तक बचत होती है और एक किलोग्राम चावल के लिए 2,000 लीटर पानी की जरूरत होती है. इसका असर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों के भूजल स्तर पर पड़ा है. हमें धान की रोपाई वाली विधि की जगह चावल की सीधी बुआई (DSR) को अपनाना होगा. बस खेत में बुआई करें और वहां फसल उगने दें.
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