जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) सरसों के ट्रॉयल का एक परिणाम सामने आया है. जिसमें बताया गया है कि डीएमएच-11 (धारा मस्टर्ड हाइब्रिड) की उपज लगभग 26 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है और इसमें तेल की मात्रा 40 प्रतिशत है. यह भारत की पहली आनुवंशिक रूप से संशोधित सरसों की फसल है. लेकिन ट्रॉयल में जो बात साफ हुई है उसमें बताया गया है कि यह बीज के रूप में व्यावसायिक रिलीज के लिए आवश्यक न्यूनतम वजन मानदंड को पूरा करने में असफल रही है. बहरहाल, अगर उत्पादन की बात करें तो भारत में पहले से ही इससे ज्यादा पैदावार देने वाली गैर जीएम फसलें मौजूद हैं, तो सवाल यह है कि फिर जीएम मस्टर्ड की जरूरत क्या? यह सवाल बहुत सारे लोगों के मन में है. जिसका जवाब प्रो. केसी बंसल ने दिया है जो राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के सचिव हैं.
खाद्य तेलों पर बढ़ती विदेशी निर्भरता के बीच कुछ लोग जीएम सरसों की खेती की वकालत कर रहे हैं. दावा किया जा रहा है कि जीएम सरसों की खेती करने के बाद हम खाने के तेल के मामले में आत्मनिर्भर हो सकते हैं. क्योंकि इसमें प्रोडक्शन काफी बढ़ जाएगा. लेकिन, इसके ट्रॉयल में जो आंकड़ा सामने आया है उससे ज्यादा तो गैर जीएम वैराइटी में पैदावार है. ऐसी ही एक किस्म है पूसा डबल जीरो मस्टर्ड-31, जिसकी खेती करके किसान प्रति हेक्टेयर 27.7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की पैदावार ले सकते हैं. हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी की सरसों किस्म आरएच-1706 की पैदावार भी 27 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.
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राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के सचिव और ग्लोबल प्लांट काउंसिल के निदेशक मंडल सदस्य प्रो. केसी बंसल का कहना है कि जीएम सरसों डीएमएच-11 का जो ट्रॉयल हुआ है वो 20 साल पुरानी किस्म पर है. उस पर भी उत्पादन 26 क्विंटल आया है. ऐसे में उसकी तुलना वर्तमान किस्मों से करना ठीक नहीं. अगर वर्तमान किस्मों में जीएम टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल हो तो उत्पादन 40 क्विंटल तक पहुंच सकता है. सरसों के बीज के लिए वजन कोई मानक नहीं है. असली मानक उपज और तेल की मात्रा है. दोनों के मामले में यह किस्म खरी उतरी है. बंसल ने दावा किया कि जीएम सरसों न तो पर्यावरण के लिए घातक है न तो इंसानों के लिए. विश्व में जीएम फसलों का उत्पादन दो दशक से हो रहा है.
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने पिछले रबी सीजन के दौरान छह अलग-अलग स्थानों पर फील्ड परीक्षण किए थे. जिसमें कहा गया है कि इसका वजन प्रति 1,000 बीजों पर लगभग 3.5 ग्राम है, जो कि बीज किस्म के रूप में पात्र होने के लिए 4.5 ग्राम के मानक से कम है. हालांकि, जीएम फसलों से उत्पादन में वृद्धि का दावा किया गया है. जीएम सरसों के पैरोकार दावा कर रहे हैं कि इसके प्रयोग से देश में सरसों का उत्पादन बढ़ेगा. इसके पैरोकारों की तरफ से दावा किया गया है जीएम सरसों का बीज अपने मूल किस्म वरुणा से 30 फीसदी अधिक उत्पादन देने में सक्षम है.
इस दावे की पड़ताल के लिए सरसों की वरुणा किस्म के बारे में जानना जरूरी है. असल में वरुणा किस्म 1986 में विकसित की गई थी. जो औसत 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर का उत्पादन देने में सक्षम है. जबकि इसमें तेल की मात्रा भी 36 फीसदी है. लेकिन, तब से लेकर अब तक कई नई किस्म विकसित की जा चुकी हैं. जो वरुणा किस्म से अधिक उत्पादन देती हैं.
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जीएम फसलों के भारतीय इतिहास पर बात की जाए तो भारत में 2002 में पहली जीएम फसल की एंट्री हुई थी. जिसे बीटी कॉटन यानी जीएम कपास के तौर पर जाना जाता है. असल में 2002 में सरकार ने कानून बनाया. हालांकि किसानों ने वर्ष 2006 से बीटी कॉटन की खेती शुरू की है और तब से अब तक इसकी खेती जारी है.
इस दौर में देश में बीटी कॉटन की तर्ज पर भी बीटी बैंगन के बीज भी लाने को लेकर नूरा-कुश्ती होती रही. तो वहीं बीटी सरसों पर भी पक्ष-विपक्ष होता रहा. प्रो. बंसल का कहना है कि टेक्नोलॉजी से ही भारतीय खेती इतनी आगे बढ़ी है. ऐसे में टेक्नोलॉजी का विरोध ठीक नहीं है. क्योंकि इसकी वजह से हम खाद्य तेलों के मामले में काफी पिछड़ें हुए हैं.
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