कपास की बुवाई से पहले बीज को तेज धूप में तपाएं, गुलाबी लट रोग से मिलेगा छुटकारा

कपास की बुवाई से पहले बीज को तेज धूप में तपाएं, गुलाबी लट रोग से मिलेगा छुटकारा

कपास उत्पादन के लिए उचित जल निकासी वाली काली मिट्टी वाला खेत सबसे अच्छा होता है. चूंकि कपास एक लंबी नकदी फसल है. इसलिए इसे संतुलित पोषण की आवश्यकता होती है. इसलिए खेती से पहले मिट्टी की जांच करवाना जरूरी है ताकि यह पता चल सके कि मिट्टी में कौन से पोषक तत्व कितनी मात्रा में उपलब्ध हैं और किस पोषक तत्व की कितनी मात्रा की आवश्यकता होगी.

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कपास की बुवाई से पहले बीज को तेज धूप में तपाएं, गुलाबी लट रोग से मिलेगा छुटकाराकपास की बुवाई से पहले करें ये काम

कपास एक रेशेदार फसल है. यह कपड़े बनाने के लिए एक प्राकृतिक रेशा है. कपास सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में उगाया जाता है. एमपी का लगभग 75 प्रतिशत कपास क्षेत्र निमाड़ क्षेत्र में आता है. इसके अलावा धार, झाबुआ, देवास, छिंदवाड़ा जिलों में भी कपास की फसल उगाई जाती है. मध्यम से भारी रेतीली दोमट और गहरी काली मिट्टी जिसमें पर्याप्त कार्बनिक पदार्थ और उचित जल निकासी व्यवस्था हो, कपास के लिए अच्छी होती है. पुराने समय में इस क्षेत्र में कपास की देशी किस्में खंडवा-2, खंडवा-3, विक्रम, जवाहर, ताप्ती आदि भी उगाई जाती थीं, लेकिन इनकी कम पैदावार के कारण बाद में संकर बीजों का इस्तेमाल होने लगा.

गुलाबी सुंडी का हमला

कुछ समय बाद संकर कपास में गुलाबी सुंडी का हमला बहुत बढ़ गया. इस समस्या को देखते हुए वैज्ञानिकों ने संकर कपास में बीटी नामक जीन को शामिल किया, जिसके परिणामस्वरूप कैटरपिलर का हमला बंद हो गया. आजकल बीटी कपास किसानों के बीच बहुत लोकप्रिय है. वहीं कपास की फसलों में गुलाबी लट रोग का खतरा भी काफी बढ़ने लगा है. जिस वजह से किसानों को काफी नुकसान हो रहा है. ऐसे में आइए जानते हैं इस रोग से फसलों को बचाने क तरीका क्या है.

कपास उत्पादन के लिए सही मिट्टी 

कपास उत्पादन के लिए उचित जल निकासी वाली काली मिट्टी वाला खेत सबसे अच्छा होता है. चूंकि कपास एक लंबी नकदी फसल है. इसलिए इसे संतुलित पोषण की आवश्यकता होती है. इसलिए खेती से पहले मिट्टी की जांच करवाना जरूरी है ताकि यह पता चल सके कि मिट्टी में कौन से पोषक तत्व कितनी मात्रा में उपलब्ध हैं और किस पोषक तत्व की कितनी मात्रा की आवश्यकता होगी.

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गुलाबी लट रोग की रोकथाम

गुलाबी लट की रोकथाम के लिए 3.5 से 40 किलोग्राम बीज को 3 ग्राम एल्युमिनियम फास्फाइड के साथ धुंआ करें और बीजों को 24 घंटे तक धुंआकरण में रखें. यदि धुंआकरण संभव न हो तो बीजों की पतली परत बनाकर उन्हें तेज धूप में गर्म करें. जड़ सड़न की समस्या वाले खेतों में 24 किलोग्राम व्यावसायिक जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर बुवाई से पहले मिट्टी में मिलाएं. बोए जाने वाले बीजों को कार्बोक्सिन (70 डब्ल्यूपी) 0.3% या कार्बेन्डाजिम (50 डब्ल्यूपी) 0.2% (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) के घोल में भिगोएं और सादे पानी में भीगे बीजों को कुछ देर छाया में सुखाएं, जिसके बाद ट्राइकोडर्मा हरजियानम जीवाणु या स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें और फिर बुवाई करें. जिन खेतों में जड़ सड़न रोग अधिक हो, वहां बुवाई से पहले 10 किलो ट्राइकोडर्मा हरजियानम को 200 किलो गोबर की गीली खाद में अच्छी तरह मिला लें और 10-15 दिन तक छाया में रखें. बुवाई के समय एक हेक्टेयर की जुताई करते समय इस मिश्रण को मिट्टी में मिला दें. बीजों को ट्राइकोडर्मा बायो से उपचारित करें.

खाद की जरूरत

किसान को फसल चक्र में अधिक मात्रा में गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए. इसके अलावा कपास के लिए 90 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर देना चाहिए. इसके लिए बुवाई से पूर्व खेत की तैयारी के समय 45 किलोग्राम नाइट्रोजन और 20 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से डालें. यदि किसी कारणवश नाइट्रोजन की उपरोक्त मात्रा बुवाई के समय नहीं दी जा सके तो प्रथम सिंचाई के समय दें. शेष नाइट्रोजन को अगस्त के प्रथम पखवाड़े में खड़ी फसल में टाप ड्रेसिंग विधि से दें और उसके बाद सिंचाई करें. नाइट्रोजन की मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर घटाई या बढ़ाई जा सकती है. देसी कपास की संकर किस्म राज. डीएच-9 के लिए 40 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए.

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