झारखंड के कुचाई सिल्क की पहचान देश ही नहीं बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर होती है. खासकर झारखंड के सिल्क की पहचान तो भारत से लेकर अमेरिका के व्हाइट हाउस तक है. पर अफसोस की बात यह की इसकी खेती और कारोबार से जुड़े लोगों की स्थिति आज दयनीय हो चली है. सरायकेला खरसांवा का सिल्क ऑर्गेनिक होता है इसलिए इसकी अलग पहचान है और इसे जीआई टैग मिला हुआ है. पर सरायकेला में इस सिल्क के काम से जुड़े किसानों और बुनकों की स्थिति आज अच्छी नहीं है. क्योंकि हाल के वर्षों में मौसम में हो रहे परिवर्नतन के कारण तसर की खेती और कताई का कार्य प्रभावित हुआ है.
इन परेशानियों को देखते हुए अब तसर के किसानों और कताई करने वाले बुनकरों को सरकारी मदद की आस है. इसलिए सरकार को बुनकरों और किसानों के लिए योजनबद्ध तरीके से आर्थिक पैकेज की व्यवस्था करनी चाहिए ताकि इनकी हालत में सुधार लाया जा सके. स्थानीय सूत्रों के मुताबिक सरायकेला खरसावां जिले में 2005 से 2013 तक बड़े पैमाने में तसर की खेती होती थी. बड़े पैमाने पर यहां से सिल्क की साड़ियों का निर्यात विश्व के एक दर्जन से अधिक देशों में होता था. इतना ही नहीं चीन भी झारखंड के कुचाई सिल्क का एक उपभोक्ता है.
पर पिछले कुछ वर्षों में यहां पर तसर कोसा के उत्पादन में कमी देखी जा रही है. इसके कारण यहां का कारोबार प्रभावित हो रहा है. जबकि यहां से प्रतिवर्ष 20-25 करोड़ रुपए का कारोबार होता है. इतना ही नहीं यहां की तसर की खेती भी इतनी मशहूर है कि यहां पर कई जगहों से लोग इसकी खेती को देखने के लिए आते हैं. हालांकि कई ऐसी वजहें हैं जिनके कारण यहां पर तसर का कारोबार प्रभानित हो रहा है. इसमें सबसे पहला कारण यह है कि सिल्क के विकास को लेकर जो योजनाएं शुरू की गई वो चालू ही नहीं हुई.
सरायकेला खरसांवा के किसान प्रभात कुमार ने बताया कि जिले में तसर सिल्क के विकास के लिए लगभग 12 साल पहले राजनगर सिल्क पार्क का शिलान्यास किया गया. पर सरकारी उदासीनता का आलम यह है कि आज तक पार्क के नाम पर बाउंडरी के अलावा कुछ भी नहीं बन पाया है. सिल्क पार्क के बन जाने से यहां पर सुत की कताई का काम होता, आस-पास के लोगों को रोजगार मिलता. झारखंड के तसर उद्योग की खस्ता हाल की जानकारी उस समय भी सामने आई जब विश्व आदिवासी दिवस पर आयोजित मेले में आई महिलाओं ने इससे होने वाले रोजगार को लेकर अपनी व्यथा बताई थी.
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