तिल की खेती अब सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि एक लाभकारी और वैज्ञानिक विकल्प बन चुकी है. चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ आनंद कुमार सिंह के निर्देश पर तिलहन अनुभाग के प्रभारी डॉ महक सिंह ने किसानों को खरीफ मौसम में तिल की वैज्ञानिक खेती अपनाने की सलाह दी है. उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश में तिल का क्षेत्रफल लगभग 4.17 लाख हेक्टेयर है और राज्य का राष्ट्रीय उत्पादन में योगदान करीब 25% है.
डॉ सिंह ने बताया कि तिल की बुवाई का सर्वोत्तम समय जुलाई के मध्य तक होता है. अच्छी पैदावार के लिए खेत में जलभराव नहीं होना चाहिए और बीज की बुवाई 3 से 4 सेंटीमीटर गहराई पर करनी चाहिए. पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए.
उन्होंने बताया कि तिल की प्रमुख प्रजातियों में सावित्री, गुजरात तिल-10, गुजरात तिल-20, टाइप 78, शेखर, प्रगति, तरुण, आरटी-351, आरटी-346 और आरटी-372 शामिल हैं. प्रति हेक्टेयर 3 से 4 किलो बीज की जरूरत होती है. फोरेट 10जी दवा का 15 किलो प्रति हेक्टेयर प्रयोग करने से तिल में फैलने वाला फैलोडी रोग नियंत्रित रहता है.
डॉ सिंह ने तिल के तेल की गुणवत्ता को भी अहम बताया. उन्होंने कहा कि तिल में कैल्शियम, आयरन, मैग्नीशियम, जिंक और सेलेनियम जैसे तत्व मौजूद होते हैं जो हृदय स्वास्थ्य और बच्चों की हड्डियों के विकास के लिए लाभकारी हैं. इसका तेल त्वचा को पोषण देता है.
मृदा वैज्ञानिक डॉ खलील खान ने बताया कि तिल की बेहतर उपज के लिए 30 किलो नत्रजन, 20 किलो फास्फोरस, 30 किलो पोटाश और 25 किलो गंधक प्रति हेक्टेयर देना चाहिए. इससे न सिर्फ उत्पादन बढ़ता है बल्कि गुणवत्ता में भी सुधार होता है. डॉ सिंह ने बताया कि यदि किसान वैज्ञानिक तरीके से तिल की खेती करें तो कम लागत में अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं. इससे न केवल आय बढ़ेगी बल्कि स्वास्थ्य लाभ भी मिलेगा.
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