
जब भी दूध का दाम बढ़ता है तब आप सोचते होंगे कि इसका फायदा किसानों को भी मिल रहा होगा. लेकिन यह आधा सच है. दरअसल, कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएं तो ज्यादातर जगहों पर किसानों की कमाई का असली फायदा डेयरी संचालकों को मिल रहा है. फुल क्रीम दूध की कीमत 66 जबकि टोंड दूध का दाम 53 रुपये प्रति लीटर हो गया है. लेकिन, किसानों को खास फायदा नहीं पहुंच रहा है. जिसकी वजह से अब दूध को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के दायरे में लाने की मांग हो रही है. ताकि पशुपालकों को दूध का उचित दाम मिले.
दूध की मार्केटिंग करने वाली कंपनियां दूध में मौजूद फैट और एसएनएफ (Solids Not Fat) के आधार पर इसका दाम तय करती हैं. सहकारी समितियां दूध के जो दाम तय करती हैं उसका आधार 6 फीसदी फैट और 9 फीसदी एसएनएफ होता है. जिस मात्रा में फैट कम होता जाता है उसी तरह कीमत घटती जाती है.
उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर में एक किसान को इसी 22 जनवरी को 3.8 परसेंट फैट और 8.2 प्रतिशत एसएनएफ वाले दूध का दाम 31.14 रुपये प्रति लीटर मिला. यह टोंड दूध की गुणवत्ता है. अब समझिए कि इसी क्वालिटी के दूध के लिए उपभोक्ताओं से कितना पैसा लिया जाता है. टोंड दूध में फैट की मात्रा 3 प्रतिशत से कम नहीं होनी चाहिए और एसएनएफ 8.5 प्रतिशत. इस समय टोंड दूध का दाम 53 रुपये प्रति लीटर है. किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष पुष्पेंद्र सिंह का कहना है कि इस क्वालिटी के दूध के लिए पशुपालक को कम से कम 40 रुपये मिलने चाहिए.
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पुष्पेंद्र सिंह का कहना है कि अमूल किसानों की अपनी सहकारी संस्था है, जिसके लगभग 36 लाख सदस्य हैं. अमूल जिस मूल्य पर ग्राहकों को दूध बेचता है उसका 75 फीसदी से अधिक पैसा किसानों के पास जाता है. जबकि निजी डेयरी वाले मार्केट में अमूल के रेट की कॉपी तो करते हैं लेकिन, अमूल जिस रेट पर किसानों से दूध लेता है वह रेट वो किसानों को नहीं देते. इससे पशुपालकों को भारी नुकसान होता है.
सिंह बताते हैं कि पिछले दिनों उन्होंने पशुपालन एवं डेयरी राज्य मंत्री संजीव बालियान से मुलाकात करके प्राइवेट डेयरी वालों की मनमानी का मुद्दा उठाया था. जिसमें अमूल का दूध खरीद मॉडल सभी डेयरी वालों पर अप्लाई करने की मांग की थी. किसानों से जिस रेट पर जिस गुणवत्ता का दूध अमूल खरीदता है उसे ही सरकार को दूध के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की तरह लागू कर देना चाहिए. ताकि किसानों की मेहनत की कमाई डेयरी वालों को न मिले.
देश के प्रमुख सहकारी समितियों ने केंद्र सरकार को बताया है कि दूध के बिक्री मूल्य का लगभग 74 फीसदी खरीद मूल्य के रूप में किसानों को दिया जाता है. हालांकि, प्राइवेट डेयरी वालों ने ऐसी कोई बात नहीं कही है. दरअसल, किसानों को दाम देने के मामले में वो सहकारी डेयरी जितना बड़ा दिल नहीं दिखाते हैं. वरना महाराष्ट्र में हर साल दूध का दाम बढ़ाने की मांग को लेकर आंदोलन नहीं होता. दूध का दाम निजी एवं सहकारी डेयरियों द्वारा खुद तय किया जाता है. इसे केंद्र सरकार कंट्रोल नहीं करती.
पशुपालन एवं डेयरी मंत्रालय ने सहकारी समितियों को बेचे जाने वाले दूध से किसानों को रोजाना हो रही आय पर 2016-17 में एक रिपोर्ट तैयार करवाई थी. इसके लिए हम गुजरात का उदाहरण लेते हैं, जहां दूध का सबसे अच्छा दाम मिलता है. वहां सहकारी डेयरी पर दूध सप्लाई करने वाले किसानों को स्थानीय गाय से प्रतिदिन 28.4 रुपये, क्रॉस बीड से 33.3 रुपये एवं भैंस से सिर्फ 25.2 रुपये की शुद्ध आय होती थी.
अब समझिए कि दूसरे राज्यों में निजी डेयरी को दूध बेचने वाले किसान कितना कम कमाते होंगे. पुष्पेंद्र सिंह का कहना है कि सरकार हर साल महंगाई के हिसाब से दूध का दाम तय करे, ताकि पशुपालन के जरिए गांवों की तरक्की हो सके. वरना किसानों की मेहनत की कमाई का सबसे बड़ा हिस्सा प्राइवेट डेयरी वाले खाते रहेंगे.
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