अगर सही सोच, मेहनत और आधुनिक तकनीक का सही इस्तेमाल किया जाए, तो बंजर ज़मीन को भी सोने की खान में बदला जा सकता है. रेगिस्तानी टीलों जैसी दिखने वाली रेतीली ज़मीन पर खेती करना एक बड़ी चुनौती होता है, क्योंकि कम उपजाऊ होने के कारण कोई भी किसान इस ज़मीन पर जोखिम उठाने को तैयार नहीं होता. मगर इस तरह की जमीन पर हनुमानगढ़ जिले के जाखड़ावाली गांव के युवा किसान विजय सिंह गोदारा ने एक नई सोच के साथ कमाल कर दिखाया है. उन्होंने 15 साल पहले अपनी 11 एकड़ बंजर जमीन पर टिश्यू कल्चर तकनीक से तैयार खजूर के पौधों की बागवानी करने का फैसला किया. उनकी सूझ-बूझ और कड़ी मेहनत का परिणाम है कि आज वह हर साल लाखों रुपये कमा रहे हैं.
विजय सिंह बताया कि है कि यहां की जमीन पूरी तरह से रेतीली और कम उपजाऊ थी, जिसके कारण खेती में फायदा नहीं था. यही वजह थी कि उन्होंने खजूर की बागवानी करने का फैसला किया. लेकिन खजूर की बागवानी में स्थानीय किस्मों से अच्छी गुणवत्ता वाले फल और अधिक उपज प्राप्त करना मुश्किल था. इसके अलावा, बीज से उगाए गए पौधे भी केवल 50 फीसदी ही फल देते थे और उनमें से कई जीवित भी नहीं बचते थे. इस समस्या को हल करने के लिए, साल 2010 में बरही, खुनिज़ी, खलास और मेडजूल जैसी खजूर की किस्मों को टिश्यू कल्चर तकनीक का उपयोग करके सरकार द्वारा तैयार किया गया था. विजय सिंह ने बताया कि उन्होंने साल 2010 में टिश्यू कल्चर तकनीक से तैयार खजूर के पौधों को अपनी रेतीली टीले वाली जमीन पर लगाया. विजय सिंह ने बताया कि उनके पास कुल 18 एकड़ जमीन थी, जिसमें से 11 एकड़ रेतीली और खारे पानी वाली थी. साल 2010 में, उन्होंने 8 मीटर की पंक्ति-से-पंक्ति और पौधे-से-पौधे की दूरी पर खजूर के पौधे लगाए. इस तरह, उन्होंने 11 एकड़ में कुल 680 पौधे लगाए, जिनमें 220 बरही, 118 खुनिज़ी, 190 खलास और बाकी मेडजूल किस्म के थे. इन सभी पौधों पर पांच साल बाद फल आने शुरू हो गए.
विजय सिंह बताते हैं कि छह साल बाद, बरही किस्म से प्रति पौधा 2 क्विंटल, खुनिज़ी से 120-125 किलोग्राम और खलास से 60-65 किलोग्राम खजूर का उत्पादन मिलता है. विजय सिंह खजूर की खेती के साथ-साथ लेमनग्रास, पामारोजा और कपास जैसी अंतर-फसलें (इंटरक्रॉप) भी उगाते हैं, जिससे उन्हें अतिरिक्त आय होती है. उनका कहना है कि एक खजूर के पेड़ पर लगभग 400 से 500 रुपये का खर्च आता है, जबकि औसतन एक पेड़ से 3500 से 4000 रुपये का खजूर मिल जाता है. इस प्रकार, केवल खजूर से ही एक एकड़ से 2.25 लाख रुपये की आमदनी हो जाती है और अंतर-फसलों से अलग आय मिलती है. वे बताते हैं कि खेत से सीधे बेचने पर खजूर 35 रुपये प्रति किलो बिकता है, लेकिन पैकेट बनाकर बेचने पर 55 से 60 रुपये प्रति किलो मिलता है. इसलिए, वे अपनी उपज को पैकेट बनाकर बाजार में बेचते हैं, जिससे उनकी आमदनी अधिक होती है.
विजय सिंह के अनुसार, हनुमानगढ़ और जयपुर क्षेत्र के लिए बरही और कुनेजी किस्में सबसे अच्छी हैं, क्योंकि यहां का मौसम नमी वाला होता है. जबकि बाड़मेर क्षेत्र में खजूर की मेडजूल किस्म बेहतर उत्पादन और गुणवत्ता देती है. किसानों को टिश्यू कल्चर पौधों का ही उपयोग करना चाहिए, क्योंकि उनमें रोग कम लगते हैं और किस्म की शुद्धता सुनिश्चित होती है. जबकि बीज से उगाए गए पौधों में किस्म का सुनिश्चित होना मुश्किल होता है. खजूर लगाने का सबसे अच्छा समय फरवरी-मार्च और अगस्त का महीना होता है. शुरुआती दो साल पौधों की विशेष देखभाल करनी होती है ताकि वे वातावरण में ठीक से स्थापित हो सकें. खजूर की खेती में पांच साल बाद फल और आमदनी मिलना शुरू होती है. पहले साल 10 से 15 किलो प्रति पौधा उत्पादन होता है और यह साल-दर-साल बढ़ता जाता है. सफल खेती के लिए इसका प्रबंधन अहम है, जिसमें 150 मादा और 6 नर पौधे होने चाहिए.
खजूर रेगिस्तानी और रेतीले टीलों में उगाई जाने वाली एक अत्यधिक लाभकारी फल फसल है. यह 70% कार्बोहाइड्रेट से भरपूर होता है. 1 किलो खजूर लगभग 3,000 किलो कैलोरी ऊर्जा प्रदान करता है. यह विटामिन-ए, बी-2, बी-7, पोटेशियम, कैल्शियम, कॉपर, मैंगनीज, क्लोरीन, फॉस्फोरस, सल्फर और आयरन जैसे आवश्यक पोषक तत्वों का भी उत्कृष्ट स्रोत है. भारत दुनिया में खजूर का सबसे बड़ा आयातक है, जो वैश्विक बाजार का लगभग 38 फीसदी आयात करता है. ऐसे में खजूर की बागवानी किसानों के लिए बेहतर कमाई का अवसर है.
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