Success Story: क्या ‘डबल इनकम’ का मूलमंत्र है FPO? फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन की पूरी डिटेल जानें

Success Story: क्या ‘डबल इनकम’ का मूलमंत्र है FPO? फार्मर प्रोड्यूसर ऑर्गेनाइजेशन की पूरी डिटेल जानें

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार का नारा है- सबका साथ, सबका विकास. इन्हीं चार शब्दों की गूंज सुनाई देती है FPO में. एकता में कितनी ताकत होती है, ये किसी को समझाने की जरूरत नहीं है, लेकिन एग्रीकल्चर सेक्टर में ये योजना किस तरह का क्रांतिकारी बदलाव ला सकती है, इसे समझने के लिए ‘किसान तक’ की टीम ने FPOs की ग्राउंड पर जाकर पड़ताल की है. झांसी की ग्राउंड रिपोर्ट पढ़िए.

देश में बड़ी संख्या में FPO का गठन किया जा रहा है ताकि किसानों की आय बढ़े. Graphics: Sandeep Bharadwajदेश में बड़ी संख्या में FPO का गठन किया जा रहा है ताकि किसानों की आय बढ़े. Graphics: Sandeep Bharadwaj
ब‍िपुल पांडेय
  • Noida,
  • Jun 23, 2023,
  • Updated Jun 23, 2023, 10:06 PM IST

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2020 में 29 फरवरी को उत्तर प्रदेश के झांसी में एक योजना की नींव रखी थी. जिस योजना का नाम है Farmer Producer organizations यानी FPO. इस योजना के तहत सरकार इस बात पर जोर दे रही है कि किसान अपना संगठन बनाएं. किसी खास तरह के एग्रीकल्चर प्रोडक्ट पर ध्यान केंद्रित करें और सभी किसान मिलकर उसकी खेती करें. इससे किसानों के उत्पाद को पहचान मिलेगी और जब बल्क में उत्पाद मिलेगा तो उसे खरीदने के लिए सीधे कंपनियां ही किसानों तक पहुंचने लगेंगी. कंपनी और किसान के बीच होने वाले इस सौदेबाजी से बिचौलियों की भूमिका ना के बराबर होगी. इससे किसानों की फसल का जो पैसा बिचौलिये डकार जाते हैं, वह किसान और कंज्यूमर दोनों तक पहुंचेगा. उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ेगी और प्रोडक्ट का ज्यादा लाभ मिलेगा. गणित साफ है. कृषि उत्पादों के बाजार में जो पैसा बिचौलियों की जेब में जाता है, वो किसानों और कंज्यूमर की जेब में जाएगा तो दोनों ही राहत महसूस करेंगे.

झांसी में एक FPO से जुड़े तुलसी की खेती करने वाले किसान. फोटो- किसान तक

इस योजना का दूसरा एक्सटेंशन है प्रोड्यूसर बनना. यानी अगर किसान की कोई कंपनी धान बेचती है, तो उसकी जगह वो पैकेट में बंद करके चावल बेचे, चावल से बने तमाम प्रोडक्ट बेचे. इससे किसान और कंज्यूमर का फायदा और अधिक बढ़ जाएगा. दरअसल कच्चा उत्पाद (Raw Product) और तैयार उत्पाद (Ready to use product) की कीमतों में बहुत अंतर होता है. कई उत्पादों में ये अंतर चार से पांच गुना तक होता है. ये अंतर आप हमारी केस स्टडी से ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाएंगे. लेकिन इससे पहले आपको आसान शब्दों में समझना होगा कि FPO कैसे बनता है.

FPO बनाने की ये है आसान तरीका

एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक देश में 86 परसेंट छोटे किसान हैं, जिनके पास 1.1 हेक्टेयर से कम जमीन है. अगर ये किसान संगठित होकर खेती करते हैं, यानी FPO बनाते हैं तो बड़ी संख्या में किसान लाभान्वित होते हैं. लेकिन FPO बनाने का आसान तरीका क्या है, ये हमने सीधे उस किसान से ही पूछा, जो झांसी में सबसे बड़ा FPO, बुंदेलखंड औषधि फार्मा प्रोड्यूसर कंपनी चला रहे हैं. कंपनी के संचालक पुष्पेंद्र सिंह ने FPO गठित करने के जो स्टेप्स बताए, वो हम नीचे सिलसिलेवार दे रहे हैं.

सबसे पहला स्टेप ये है कि 10 किसानों को साथ जोड़ें. फिर 5 को डायरेक्टर और 5 को प्रोमोटर बनाएं. इसके बाद सभी 10 किसानों के डॉक्युमेंट एकत्र कर लें, जिसमें आधार कार्ड, पैन कार्ड, खतौनी, बिजली का बिल, एक फोटो, बैंक अकाउंट का स्टेटमेंट शामिल है. दस किसानों के इन सारे दस्तावेजों को लेकर CA या CS के पास जाएं. ये CA या CS आपके 10 किसानों के ग्रुप को कंपनी एक्ट में रजिस्टर करा देंगे. रजिस्ट्रेशन होते ही FPO बनकर तैयार हो जाता है. नोट करने वाली बात ये है कि इस प्रक्रिया में 35 से 40 हजार रुपये तक का खर्च आता है. अगर 10 किसानों में ये खर्च बांट दें तो एक किसान को साढ़े तीन से चार हजार रुपये तक खर्च करने होते हैं.

कंपनी के रजिस्टर होने के बाद FPO को आगे बढ़ाने का दूसरा चरण शुरू होता है. 10 किसानों के बैंक अकाउंट तो होने ही चाहिए, FPO का बैंक में अलग से अकाउंट खुलवाना होता है और फिर अपने ग्रुप से मेंबर्स को जोड़ना होता है. यहां आपके लिए ये जानना जरूरी है कि अगर आप मैदानी इलाकों में रहते हैं तो आपको अपने FPO में कम से कम 300 सदस्य जोड़ने होते हैं, लेकिन अगर आप पर्वतीय इलाकों या नॉर्थ ईस्ट में FPO खोल रहे हैं तो 100 सदस्य बनाना अनिवार्य होता है. ऐसा इसलिए किया जाता है, क्योंकि मैदानी इलाकों में जनसंख्या का घनत्व ज्यादा होता है, जबकि पर्वतीय इलाकों या नॉर्थ ईस्ट में जनसंख्या घनत्व अपेक्षाकृत कम है.

FPO गठित करने का किसान ने ये तरीका बताया. Graphics: Sandeep Bharadwaj

FPO से जुड़ने के लिए किसानों को कंपनी से शेयर खरीदने होते हैं. एक कंपनी के पास एक लाख शेयर होते हैं और इस तरह से सभी सदस्य शेयर होल्डर बन जाते हैं. अगर कोई किसान कंपनी से बाहर निकलना चाहता है तो वो अपना शेयर बेचकर कंपनी से बाहर निकल सकता है. शेयर के आधार पर ही कंपनी की कमाई का शेयर बंटता है. लेकिन ये समझने से पहले FPO के गठन से जुड़ी वो बात समझ लेते हैं, जो हर किसान के लिए जानना जरूरी है.

FPO बनाने से पहले ये जानना जरूरी है

FPO बनाने का एक तरीका ये भी है कि Enam.gov.in पर आप ऑनलाइन रजिस्टर करें. संगठन के गठन का खर्च सरकार की ओर से वहन किया जाता है. इतना ही नहीं, तीन साल के लिए FPO को सरकार की ओर से दो कर्मचारी दिए जाते हैं. इनमें एक अकाउंटेंट होता है, जो कंपनी के आय-व्यय का लेखा-जोखा रखता है. दूसरा CEO होता है, जो कंपनी को चलाने की जिम्मेदारी संभालता है. इन दोनों कर्चारियों की सैलरी सरकार की ओर से दी जाती है. यानी किसानों के संगठन का इसमें एक पैसा भी खर्च नहीं होता.

FPO बनाने के इच्छुक किसानों के लिए एक किसान की ओर से दी गई जानकारी. Graphics- Sandeep Bharadwaj

FPO की अनिवार्य शर्त पूरी करने पर यानी 300/100 किसानों का समूह तैयार होने के बाद उसकी इक्विटी के बराबर धनराशि सरकार दी जाती है. यदि कंपनी के पास 6 लाख रुपये की इक्विटी हो जाती है तो सरकार भी 6 लाख रुपये देती है. यानी इक्विटी डबल हो जाती है. इस सहायता का उद्देश्य यह होता है कि कंपनी को शुरुआत में आने वाली आर्थिक दिक्कतों से बचाया जा सके. कंपनी जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, सरकारी सहायता बढ़ती जाती है. एक FPO को सरकार की ओर से अधिकतम 15 लाख रुपये की ग्रांट दी जा सकती है. यानी 30 लाख रुपये तक की कंपनी तैयार होने तक सरकार का सहयोग जारी रहता है.
एक कंपनी को खड़ा करने में तीन साल तक सरकार का सहयोग जारी रहता है. अपेक्षा की जाती है कि इसके बाद संगठन को सरकारी सहयोग की जरूरत नहीं होनी चाहिए. किसान अपने पैरों पर खड़े हो जाएं और अपने बलबूते कंपनी को आगे बढ़ाएं. इसीलिए इस अवधि के बाद सरकार अपने दोनों कर्मचारी भी वापस ले लेती है. 

किसानों को कंपनी की कमाई में ऐसे मिलती है हिस्सेदारी

पुष्पेंद्र सिंह ने किसान तक को बताया कि उनकी कंपनी का हर साल AGM होता है. यानी Anual General Meeting. इस मीटिंग में किसानों के सामने कंपनी के आय व्यय का ब्योरा रखा जाता है. मान लीजिए कि उस साल कंपनी को 3 लाख रुपये का शुद्धा लाभ हुआ. तो इस लाभ का 20 परसेंट हिस्सा किसानों में बांट दिया जाता है. किसानों का जितना शेयर होता है, उसे उतनी राशि मिल जाती है. बाकी 80 परसेंट हिस्सा कंपनी के पास रह जाता है, जिससे कंपनी को आगे बढ़ाया जाता है. उदाहरण के तौर पर अगर कंपनी को तुलसी की पत्ती बेचने की जगह उसका अर्क निकालकर बेचना है, तो उसका प्लांट लगेगा. अगर तुलसी का टी बैग बनाना है तो उसकी मशीनें आएंगी. अगर तुलसी का तेल निकालना है, तो उसका प्लांट लगेगा. मान लीजिए कि इस बीच किसी किसान को आर्थिक तंगी हुई, तो उसके पास दो रास्ते होते हैं. वो अपना शेयर बेचकर कंपनी से अलग हो सकता है. लेकिन कंपनी के लिए अच्छा विकल्प होता है कि वो परेशान किसान को लोन दे. किसान को कम ब्याज पर कंपनी की ओर से लोन दिया जाता है. इससे किसान अपनी परेशानी से बाहर भी आ सकता है और कंपनी से जुड़ा भी रह सकता है.

इस सहयोग का क्या असर होता है, अब ये कंपनियों से जानते हैं. शुरुआत उसी झांसी से करते हैं, जहां 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस स्कीम की नींव रखी थी. यानी झांसी से, जहां के पठारका गांव में ये FPO बना हुआ है.

झांसी के तुलसी से जुड़े FPO की सफलता की कहानी

झांसी शहर से जब हम पठारका गांव की ओर बढ़े तो सारे खेत सपाट पड़े थे. किसानों की फसलें कट चुकी थीं, लेकिन उनमें से अधिकतर खेतों में इस साल भी तुलसी की खेती की गई थी. इन खेतों से निकली तुलसी को पठारका गांव के ही बुंदेलखंड औषधि फार्म प्रोड्यूसर कंपनी में स्टोर किया गया था और ये कंपनी ही किसानों की आय का अब जरिया है. किसानों की फसल को यानी तुलसी की पत्तियों को इसी सेंटर से बेचा जाता है. कंपनी को कैसे आगे बढ़ाया जाए, इसकी मीटिंग भी यहीं होती है.

FPO के संचालक पुष्पेंद्र सिंह से जब हमने उनके FPO की पूरी कहानी पूछी तो उन्होंने बताया कि बुंदेलखंड के इस इलाके में 2014 से तुलसी की खेती होती थी, लेकिन ये खेती बहुत सीमित थी. किसान भी संगठित नहीं थे और संगठित नहीं होने में सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि किसान एक फुटकर विक्रेता जैसी स्थिति में था. किसी के पास तुलसी की दस किलो पत्तियां होती थीं तो किसी के पास पच्चीस किलो. किसी के पास इतना उत्पाद नहीं होता था कि कोई कंपनी उनसे सीधा सौदा करने के बारे में सोच पाती. परिणाम ये होता था कि बिचौलियों की चांदी हो जाती थी. वो औने-पौने दाम में तुलसी की पत्तियां खरीद लेते थे और थोक विक्रेता की तरह कंपनियों से अच्छा सौदा कर लेते थे. क्योंकि तुलसी एक मेडिसिनल प्लांट है और इसकी पूरे देश में मांग है.

केंद्र और प्रदेश सरकार ने जब किसानों की आय बढ़ाने का प्रयास किया तो 2017 से किसान संगठित होने शुरू हुए. किसानों ने एकजुट होकर तुलसी की खेती का रकबा बढ़ाया. यहां के किसानों ने प्रदेश सरकार के उद्यान विभाग का सहयोग लिया और अपना FPO गठित कराया. यहां के किसानों के जीवन में ये टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ.

बुंदेलखंड के सबसे बड़े FPO के संचालक पुष्पेंद्र सिंह. फोटो- किसान तक

संगठन बनते ही सफलता के द्वार खुलने लगे 

पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं कि जब किसान संगठित हुए तो उनके लिए सफलता के द्वार अपने आप खुलते चले गए. मेडिसिनल प्लांट तुलसी से जुड़ी कंपनियों तक जब ये बात पहुंची, तो उन्होंने इसमें दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी. आम तौर पर कंपनियों को कोसा जाता है, लेकिन यहां के किसानों को कई कंपनियों ने ही आगे बढ़ाया. हरिद्वार की आयुर्वेद से जुड़ी एक निजी कंपनी ने झांसी पहुंचकर किसानों को जैविक खेती की ट्रेनिंग दी और ग्रुप फार्मिंग का फ्री में इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करके दिया. किसान बताते हैं कि जब उनकी फसल तैयार हो गई तो खुद कंपनियां ही उनके पास पहुंचीं और किसानों ने सफलता का पहला स्वाद तब चखा जब उनका उत्पाद दोगुने दाम पर बिका. बिचौलियों की भूमिका जब खत्म हुई तो किसानों को भी अपनी फसल का अच्छा दाम मिलने लगा और कंपनियों को भी अपने मन मुताबिक प्रोडक्ट मिलने लगा.

प्रोड्यूसर बनकर किसानों ने चमकाई किस्मत

अब तक इस एफपीओ से 1070 किसान जुड़ चुके हैं और ये बुंदेलखंड में सबसे बड़ा ग्रुप है, जो 3000 एकड़ में तुलसी की खेती कर रहा है. एफपीओ से जुड़े किसान बताते हैं कि जब वो दस तरह की खेती करते थे तो फायदा नहीं होता था, अगर साथ में करते हैं तो कंपनियां एक साथ आती हैं. दरअसल इससे सिर्फ बिचौलियों का पैसा ही नहीं बचता, बल्कि ट्रांसपोर्टेशन कास्ट भी कम हो जाता है. एक ही जगह से कंपनियों को अपनी जरूरत का पूरा उत्पाद मिल जाता था, इसलिए उन्हें भी ये सौदा सस्ता पड़ता है. इसकी अगली कड़ी में किसान जब प्रोड्यूसर बने, तो किसानों के जीवन में इससे भी ज्यादा परिवर्तन आया.
पुष्पेंद्र सिंह बताते हैं कि जब उन्होंने खुद प्रोडक्ट बनाना शुरू किया तो उनका लाभ कई गुना बढ़ा. इस समय तुलसी की पत्ती 100 रुपये किलो बिकती है. लेकिन उतनी ही तुलसी की पत्ती का अगर वो ‘टी बैग’ (चाय की पुड़िया) बनाते हैं तो उसकी कीमत 500 रुपये की हो जाती है. यानी चार से पांच गुना लाभ होता है. इस लाभ को देखते हुए ही FPO के किसानों ने तुलसी का अर्क और तेल निकालने का प्लांट भी लगा लिया, जो किसानों और कंपनियों के लिए और भी ज्यादा लाभप्रद साबित हुआ. कंपनियों के लिए कच्चा माल ले जाने की जगह तैयार माल ले जाना आसान हो गया और किसानों का मुनाफा भी बढ़ गया.

झांसी के FPO में तुलसी की पत्ती से प्रोडक्ट तैयार करते किसान. फोटो- किसान तक

तीन उत्पाद और तीन गुना फायदे वाला गणित ये है

झांसी के इस FPO ने इस साल किसानों से 100 रुपये प्रति किलो तुलसी की पत्ती खरीदी. पुष्पेंद्र सिंह बताते हैं कि ये इस साल का मार्केट प्राइस था यानी बाजार में इसी दर पर तुलसी बेची जा रही थी. यानी किसानों को उसकी उत्पाद का उचित मूल्य मिला और हाथोंहाथ पैसे मिल गए. किसानों के मुताबिक अगर 100 रुपये की उस तुलसी की पत्ती को तीन प्रोडक्ट में ढाल दिया जाए तो उसकी कीमत अलग हो जाती है. तेल निकालने पर 100 रुपये की तुलसी पत्ती की कीमत 250 रुपये हो जाती है. टी बैग (चाय) बनाने पर 100 रुपये की तुलसी की पत्ती की कीमत 500 रुपये हो जाती है. अब कंपनी ने इसका अर्क बनाना शुरू कर दिया है, जो बाकी दो प्रोडक्ट की तुलना में और भी ज्यादा रहने की उम्मीद है. जैसा कि हमने पहले बताया, कच्चे और तैयार प्रोडक्ट की कीमतों के बीच के अंतर से कंपनी को अतिरिक्त लाभ होगा. इससे होने वाले नेट प्रॉफिट का 20 परसेंट किसानों में बंटेगा और 80 परसेंट से FPO आगे बढ़ेगा.

Graphics- Sandeep Bharadwaj

क्या एग्रीकल्चर सेक्टर में पॉजिटिव वातावरण तैयार हो रहा है?

e-NAM प्लेटफॉर्म पर अब तक 2389 FPO रजिस्टर हो चुके हैं. इसके लिए कृषि मंत्रालय ने Small Farmers’ Agribusiness Consortium (SFAC) बनाया है. सरकार की कोशिश है कि किसानों की ‘डबल इनकम’ का जो मंत्र फूंका गया है, वो उम्मीद से कहीं ज्यादा आगे तक ले जाया जाए.

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