मथुरा के प्रगतिशील किसान सुधीर अग्रवाल ने बासमती धान की खेती में एक खास तरीका अपनाया है, जिससे न केवल लागत में भारी कमी आई है बल्कि उत्पादन भी बंपर हो रहा है. वह अपनी धान की फसल में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न्यूनतम करके हर साल शानदार उपज लेते हैं. सुधीर अग्रवाल की इस अनोखी तकनीक से सामान्य तरीके से बोई गई फसल की तुलना में उन्हें 20 फीसदी अधिक उपज मिलती है. इस विधि से रोपाई वाली धान की तुलना में लागत में भारी बचत होती है. प्रति एकड़ पानी, जुताई और पलेवा पर 7 से 8 हजार रुपये की बचत होती है. साथ ही पानी, समय और मजदूरी की भी बचत होती है.
सुधीर अग्रवाल अपनी बासमती धान की खेती में धान की सीधी बुवाई (Direct Seeding of Rice - DSR) का प्रयोग करते हैं. उनका तरीका कुछ यूं है-सबसे पहले वे खेत की दो बार जुताई करके पाटा लगाते हैं. इसके बाद खेत में 10 किलोग्राम ढैंचा (सनहेंप) के बीज (लगभग 500 रुपये के) का छिड़काव विधि से बिखेर देते हैं. ढैंचा के साथ ही बासमती धान की किस्म 1121 के बीज की सीधी बुवाई सीड ड्रिल से करते हैं. इस समय वे 50 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट भी डालते हैं. इस विधि से रोपाई वाली धान की तुलना में लागत में भारी बचत होती है. प्रति एकड़ पानी, जुताई और पलेवा पर 5 से 6 हजार रुपये की बचत होती है, साथ ही पानी समय और मज़दूरी की भी बचत होती है.
प्रगतिशील किसान ने कहा जब धान और ढैंचा एक साथ बढ़ते हैं, तो ढैंचा तेज़ी से बढ़ता है. 30 से 35 दिनों में ढैंचा तैयार हो जाता है, तब उस पर 2,4-डी (2,4-D) खरपतवारनाशक का छिड़काव करते हैं. इससे ढैंचा गलकर मिट्टी में मिल जाता है और धान की फसल को प्राकृतिक रूप से नाइट्रोजन मिलती है. सुधीर अग्रवाल बताते हैं कि इस तकनीक से जहां सामान्य तरीके से बासमती धान में प्रति एकड़ 4 से 5 हजार रुपये के उर्वरक खर्च होते हैं. वहीं उनकी लागत बहुत कम आती है. उनका अनुभव है कि अगर ढैंचा के इक्का-दुक्का पौधे बच भी जाते हैं तो उन पर चिड़िया आकर बैठती हैं और धान में लगने वाले कीड़े-मकौड़ों को खाकर फसल को प्राकृतिक रूप से साफ करती हैं.
सुधीर अग्रवाल अपनी फसल में यूरिया का बहुत कम प्रयोग करते हैं. वे बताते हैं कि पूरी फसल अवधि के दौरान वे केवल 15 से 20 किलोग्राम यूरिया का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि अधिक यूरिया के प्रयोग से धान की फसल हरी होकर कीटों के आक्रमण का शिकार बन जाती है.
• यूरिया का प्रयोग:
o धान की फसल जब 30 दिन की होती है, तब 5 किलोग्राम यूरिया प्रयोग करते हैं.
o जब फसल 50 दिन की होती है, तब 5 किलोग्राम यूरिया प्रयोग करते हैं.
o जब फसल 70 से 75 दिन की होती है, तब अंतिम 5 किलोग्राम यूरिया का प्रयोग करते हैं.
• एनपीके का प्रभावी उपयोग
o धान की फसल में यूरिया की जगह वे 40 से 45 दिन के बाद 1 किलोग्राम एनपीके (19:19:19) का छिड़काव करते हैं.
o इसके बाद, जब फसल की अवधि 70 से 75 दिन की हो जाती है, तो 1 किलोग्राम एनपीके (0:52:34) का छिड़काव करते हैं.
o और जब धान की बालियां 10 प्रतिशत निकल आती हैं, तब 1 किलोग्राम एनपीके (0:0:50) का छिड़काव करते हैं. इससे बालियां बेहतर आती हैं.
सुधीर अग्रवाल की इस अनोखी तकनीक से सामान्य तरीके से बोई गई फसल की तुलना में उन्हें 20% अधिक उपज मिलती है. जहां उनकी कुल उर्वरक लागत प्रति एकड़ लगभग 1000 रुपये आती है (500 रुपये ढैंचा और 500-600 रुपये रासायनिक खाद). वहीं उन्हें 22 से 25 क्विंटल बासमती धान की उपज मिलती है. वे बताते हैं कि रोपी गई धान की तुलना में सीधी बुवाई तकनीक से उनकी खेती में आधी से भी कम लागत लगती है और उपज भी ज्यादा मिलती है. इस विधि से खेत की मिट्टी की उर्वरता भी बनी रहती है, जिससे रबी की सरसों या आलू की फसल में भी अधिक उपज मिलती है. यह किसानों के लिए एक बेहतरीन और कम लागत वाली तकनीक है.