एक समय जब शिक्षित युवा रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, तब कांगड़ा जिले के झियोल पंचायत के डिक्टू गांव के शक्ति देव ने अपना अलग रास्ता चुना है. इंजीनियरिंग ग्रेजुएट शक्ति देव ने साल 2012 में अपनी निजी क्षेत्र की नौकरी छोड़कर अपने पैतृक भूमि पर लौटने का निर्णय लिया. शुरुआत में देव ने पारंपरिक तरीकों का पालन किया और अपने पिता द्वारा लगाए गए आम और लीची बागों में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों का उपयोग किया. लेकिन उच्च लागत और कम लाभ ने उन्हें अपने तरीकों पर फिर से सोंचने के लिए मजबूर किया.
अखबार ट्रिब्यून के अनुसार साल 2015 में देव ने ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर टेक्निक्स के साथ प्रयोग करना शुरू किया. साल 2018 में डॉ. वाईएस परमार यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टिकल्चर एंड फॉरेस्ट्री, नौनी में प्रशिक्षण लेने के बाद उन्होंने पूरी तरह से जैविक खेती अपनाई. आज उनके खेत में जीवामृत, घन जीवामृत, दशपर्णी अर्क और अग्नास्त्र जैसी देशी तैयारियों का प्रयोग किया जाता है. कृषि विभाग के सहयोग और देशज गायों के पालन के लिए मिलने वाली अनुदानों के साथ, उन्होंने आत्मनिर्भर खेती का एक मॉडल विकसित किया है.
मार्केटिंग संबंधी चुनौतियों का सामना करने के लिए, वे मिडिलमैन को दरकिनार कर सीधे चयनित परिवारों को अपने उत्पाद बेचते हैं, जिससे उन्हें स्थिर बिक्री और बेहतर लाभ मिलता है. मौसमी फसलों के अलावा, देव फूलों की खेती करते हैं, नर्सरी चलाते हैं, लीची के बाग का रखरखाव करते हैं और पशु पालन भी करते हैं. उनकी खेती से उन्हें मौसम की परिस्थितियों के अनुसार मासिक 30,000 से 40,000 रुपये तक की आय होती है.
जैविक खेती के आर्थिक और पारिस्थितिक लाभों के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए, वह नियमित रूप से पड़ोसी गांवों के किसानों से जुड़ते हैं और उन्हें खेती के फायदे दिखाते हैं. उन्होंने जीरो-टिलेज विधियों को भी बढ़ावा दिया है, जो मिट्टी की नमी को बनाए रखने और उसकी उर्वरता बढ़ाने में मदद करती हैं. देव ने कहा, 'हालांकि मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है, फिर भी अपनी जमीन से अन्न उगाने का आनंद किसी भी चीज़ से बढ़कर है.' उनका मानना है कि जैविक खेती न केवल स्वस्थ उपज सुनिश्चित करती है, बल्कि मिट्टी और पारिस्थितिकी के दीर्घकालिक संतुलन को भी बनाए रखती है.
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