Success Story: एक किसान का खास घोल, अब आधी यूरिया में पांए बंपर उपज, जाने क्या है सीक्रेट?

Success Story: एक किसान का खास घोल, अब आधी यूरिया में पांए बंपर उपज, जाने क्या है सीक्रेट?

एक अनुभवी किसान भूपिंदर सिंह बाजवा ने खेती में एक क्रांतिकारी 'देसी जुगाड़' खोजा है. उन्होंने यूरिया की भारी लागत और बर्बादी को रोकने के लिए एक 'सीक्रेट घोल' तैयार किया. इससे यूरिया हवा में नहीं उड़ता और न ही पानी में बहता है. नतीजा यह हुआ कि अब खेत में आधी यूरिया डालने पर भी फसल को पूरा पोषण मिलता है, पैदावार बंपर होती है साथ ही मिट्टी की सेहत भी सुधरती है.

Urea power solutionUrea power solution
क‍िसान तक
  • नई दिल्ली,
  • Nov 17, 2025,
  • Updated Nov 17, 2025, 11:32 AM IST

उत्तराखंड की तराई में बसे नैनीताल जिले के बाज़पुर गांव के प्रगतिशील किसान भूपिंदर सिंह बाजवा अपने 35 साल की लंबी खेती के अनुभव से एक बात बहुत अच्छी तरह समझ चुके थे कि आधुनिक खेती की अपनी सीमाएं हैं. बाजवा कई सालों से देख रहे थे कि बंपर पैदावार लेने की होड़ में किसान खेतों में अंधाधुंध रासायनिक खाद, खासकर यूरिया का इस्तेमाल कर रहे हैं. वह खुद भी करते थे, लेकिन उनका मन हमेशा कचोटता था. जिससे खेती की लागत बढ़ने के साथ लगातार केमिकल के इस्तेमाल से खेत की मिट्टी 'बेजान' और 'कठोर' होती जा रही थी. मिट्टी के असली दोस्त, यानी 'केंचुए' और 'लाभदायक जीवाणु' मरते जा रहे थे. उन्हें पता था कि खेत में फेंकी गई यूरिया का 50% से 60% हिस्सा तो फसल को मिलता ही नहीं. यूरिया बहुत 'अस्थिर' होता है. जैसे ही वह मिट्टी के संपर्क में आता है, उसका बड़ा हिस्सा या तो 'अमोनिया' गैस बनकर हवा में उड़ जाता है या फिर सिंचाई के पानी के साथ घुलकर जमीन में बहुत नीचे चला जाता है, जहां पौधे की जड़ें उसे ले ही नहीं पातीं. बाजवा एक ऐसा हल चाहते थे, जहां खर्च भी कम हो, पैदावार भी बंपर मिले और उनकी 'मिट्टी की सेहत' भी बनी रहे.

बंपर पैदावार वाला खास घोल

बाजवा जैविक खेती के महत्व को समझते थे और वर्मी कम्पोस्ट  का प्रयोग भी करते थे. उनके दिमाग में एक विचार कौंधा,क्यों न यूरिया की ताकत और वर्मीकम्पोस्ट शक्ति को मिला दिया जाए? उन्होंने सिर्फ मिश्रण नहीं किया, बल्कि एक इनोवेशन किया. उन्होंने समझा कि यूरिया की नाइट्रोजन को अगर किसी चीज से 'पकड़' लिया जाए, तो वह उड़ेगी भी नहीं और बहेगी भी नहीं. यह काम केंचुआ खाद में मौजूद करोड़ों 'लाभदायक जीवाणु' और जैविक कार्बन बखूबी कर सकते थे. बाजवा का यह तरीका बेहद सरल और असरदार है, जिसे कोई भी किसान आसानी से अपना सकता है. इसके लिए बस 1 किलो यूरिया को 4 से 5 लीटर केंचुआ खाद के गाढ़े घोल में अच्छी तरह मिलाकर 2 से 3 दिनों के लिए छांव में रख देना होता है. असली 'चमत्कार' इसी दौरान होता है, जब खाद में मौजूद करोड़ों सूक्ष्म जीवाणु यूरिया की नाइट्रोजन को सोखकर उसे अपने साथ 'बांध' लेते हैं. आसान शब्दों में समझें तो यह प्रक्रिया यूरिया पर एक 'जैविक कोटिंग' चढ़ा देती है, जिससे यूरिया हवा में उड़कर या पानी में बहकर बर्बाद नहीं होता, बल्कि एक 'स्लो-रिलीज़' खाद बनकर फसल को धीरे-धीरे और पूरा पोषण देता है.

अब खेत में लगेगा सिर्फ आधा यूरिया

जब बाजवा ने इस तैयार घोल को सिंचाई के पानी के साथ या स्प्रे करके अपनी फसलों अनाज, सब्ज़ियां और नकदी फसलों में इस्तेमाल किया, तो परिणाम चौकाने वाले थे. जहां पहले 100 किलो यूरिया लगता था, वहां अब इस 'पॉवर-घोल' के कारण 50 किलो यूरिया में ही काम हो गया. क्योंकि अब 90 फीसदी से ज़्यादा नाइट्रोजन सीधे पौधे को मिल रही थी, बर्बादी लगभग शून्य हो गई थी. यूरिया की खपत आधी होने से खेती की लागत में सीधी बचत हुई, जिससे मुनाफा बढ़ा. पौधों को नाइट्रोजन 'अचानक' मिलने की बजाय, 'धीरे-धीरे' और 'लगातार' चलती रही. इससे पौधे ज़्यादा स्वस्थ हुए, उनमें हरापन बढ़ा और पैदावार में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ. यह इस प्रयोग का सबसे बड़ा फायदा था. केमिकल यूरिया मिट्टी के जीवाणुओं को मारता है, लेकिन यह 'जैविक-यूरिया' का घोल मिट्टी में करोड़ों नए जीवाणुओं को 'जन्म' दे रहा था. मिट्टी फिर से 'ज़िंदा' होने लगी. वह नरम, भुरभुरी और उपजाऊ बनने लगी. केंचुओं की संख्या बढ़ने लगी.

देश भर के किसानों के लिए नई उम्मीद

एस. भूपिंदर सिंह बाजवा का यह साधारण सा दिखने वाला प्रयोग, असल में 'एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन' और 'पर्यावरण-अनुकूल खेती' का एक बेहतरीन उदाहरण है. यह प्रयोग सिर्फ बाज़पुर या उत्तराखंड तक सीमित नहीं है. भारत का कोई भी किसान, चाहे वह गेहूं-धान उगाता हो, सब्ज़ियां लगाता हो, या बागवानी करता हो, इस तकनीक को अपना सकता है. यह 'कम लागत में बंपर उत्पादन' का सच्चा मॉडल है. हालांकि इस तकनीक पर अभी और वैज्ञानिक परीक्षण जैसे कि मिट्टी पर इसके दीर्घकालिक प्रभाव, नाइट्रोजन उपयोग दक्षता पर सटीक आंकड़े, आदि की जरूरत है, लेकिन बाजवा के 35 साल के अनुभव ने जो रास्ता दिखाया है, वह भारतीय कृषि के लिए 'मील का पत्थर' साबित हो सकता है.

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