किसान ने कबाड़ से बनाई अनोखी 'पैडल नाव', मछली पालन का खर्च आधा, मुनाफा दोगुना!

किसान ने कबाड़ से बनाई अनोखी 'पैडल नाव', मछली पालन का खर्च आधा, मुनाफा दोगुना!

मछली पालकों के लिए तालाब में चारा डालना और दवा छिड़कना एक बड़ी चुनौती थी. इसमें चारा बर्बाद होता था और पानी गंदा होने से मछलियाँ बीमार पड़ती थीं. इस समस्या को हल करने के लिए, एक किसान ने 'देसी जुगाड़' से एक सस्ती 'पैडल नाव' बनाई है. यह नाव कबाड़ में पड़ी प्लास्टिक की कैन, लोहे के फ्रेम और साइकिल के हिस्सों से बनी है.

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जेपी स‍िंह
  • New Delhi ,
  • Nov 13, 2025,
  • Updated Nov 13, 2025, 4:16 PM IST

मछली पालन किसानों के लिए मुनाफे का एक बड़ा जरिया है, लेकिन इस मुनाफे के पीछे कई बड़ी चुनौतियां भी छिपी हैं. इन चुनौतियों में सबसे मुश्किल काम है बड़े-बड़े तालाबों में मछलियों को सही तरीके से चारा खिलाना और समय पर दवा डालना. यह एक ऐसा काम है जिसमें न सिर्फ बहुत ज्यादा मेहनत और समय लगता है, बल्कि इसमें लागत भी बहुत आती है.

अक्सर किसान सही तरीका न अपना पाने के कारण अपना हजारों रुपये का चारा बर्बाद कर देते हैं और मछलियों को बीमारियों से नहीं बचा पाते. लेकिन कहते हैं, जहां समस्या है, वहीं समाधान भी है. पंजाब के कपूरथला जिले किसान एस. परमिंदरजीत सिंह ने अपनी सूझबूझ से मछली पालकों की एक बड़ी मुश्किल आसान कर दी है. 12वीं पास परमिंदरजीत को मछली पालन का 5 साल का अनुभव है. उन्होंने देखा कि बड़े तालाबों में चारा डालने और दवा छिड़कने में बहुत मेहनत लगती है और चारा भी बर्बाद होता है. 

इसी समस्या का हल निकालने के लिए उन्होंने कबाड़ से एक 'देसी जुगाड़' वाली सस्ती 'पैडल नाव' बना दी. यह नाव बेकार प्लास्टिक कैन और साइकिल के हिस्सों से बनी है. उनके इस सस्ते और अनोखे अविष्कार से अब छोटे किसान भी कम खर्चे और कम मेहनत में ज्यादा मुनाफा कमा सकते हैं.

देसी जुगाड़ से बनी अनोखी 'पैडल नाव

इस समस्या के हल के लिए, किसान ने महंगी लकड़ी या प्लास्टिक की नाव खरीदने की जगह, खुद ही एक सस्ती और हाथ से चलने वाली नाव डिजाइन की. यह 'देसी जुगाड़' का एक बेहतरीन नमूना है. इसे बनाने के लिए बेकार पड़ी प्लास्टिक की बड़ी-बड़ी कैन को इकट्ठा किया गया, जो नाव को पानी पर तैराने का काम करती हैं. इन सभी कैन को आपस में जोड़ने के लिए एक लोहे का फ्रेम वेल्डिंग करके तैयार किया गया.

इस नाव की सबसे खास बात इसे चलाने का तरीका है. फ्रेम पर बैठने के लिए एक पुरानी साइकिल की सीट और इसे पानी में आगे बढ़ाने के लिए पैडल का एक पूरा सिस्टम लगाया गया. यह अनोखी 'साइकिल नाव' इतनी हल्की है कि एक अकेला आदमी इस पर बैठकर पैडल मारते हुए पूरे तालाब का चक्कर आसानी से लगा सकता है.

देसी नाव के बड़े फायदे

यह सस्ती 'पैडल नाव' मछली पालकों के लिए बहुत फायदेमंद साबित हुई है. इस नाव से किसान तालाब के हर कोने में आसानी से पहुंचकर चारा एक-समान रूप से बांट सकता है, जिससे चारे की बर्बादी पूरी तरह रुक जाती है. जब हर मछली को बराबर चारा मिलता है, तो उनका विकास तेजी से होता है. इससे किसानों का फीड कन्वर्जन रेशियो सुधरता है, मतलब कम चारे में ज्यादा मछली उत्पादन होता है.

इसके अलावा, नाव की मदद से पूरे तालाब में दवा का छिड़काव करना भी बहुत आसान हो गया है. इससे बीमारियों पर जल्दी काबू पाया जा सकता है और मछलियों के मरने का खतरा कम हो जाता है. साफ पानी और पूरे चारे से किसान का मुनाफा बढ़ गया है.

लागत कम, मुनाफा ज्यादा

इस नवाचार की सबसे बड़ी खासियत इसकी बहुत कम लागत है, जो इसे हर छोटे किसान की पहुंच में लाती है. इस पूरी 'पैडल नाव' को तैयार करने में सिर्फ 8,000 से 9,000 रुपये तक का ही खर्च आता है. इसकी तुलना में, बाजार में मिलने वाली लकड़ी या प्लास्टिक की पारंपरिक नावों को खरीदने के लिए किसानों को 10,000 से 25,000 रुपये या इससे भी ज्यादा खर्च करने पड़ते हैं. यह सस्ता, टिकाऊ और 'देसी' जुगाड़ छोटे मछली पालकों की सबसे बड़ी जरूरत को पूरा करता है.

यह दिखाता है कि कैसे एक किसान की सोच और कम लागत वाले समाधान (Low-cost Solutions) मछली पालन जैसे पारंपरिक काम को भी ज्यादा फायदेमंद और आसान बना सकते हैं. यह नाव हजारों किसानों के लिए तरक्की का रास्ता खोलती है.

क्या है मछली पालकों की सबसे बड़ी सिरदर्दी?

पारंपरिक मछली पालन में किसानों के सामने दो बड़ी मुश्किलें थीं. पहली, चारे की भारी बर्बादी. किसान जब तालाब के किनारे से चारा फेंकते थे, तो वह पूरे तालाब में बराबर नहीं फैलता था. ज्यादातर चारा एक ही जगह इकट्ठा होकर तली में बैठ जाता था, जिससे दूर की मछलियाँ भूखी रह जाती थीं और किसान का पैसा बर्बाद होता था.

दूसरी और बड़ी समस्या थी पानी का प्रदूषण. तली में जमा यही बचा हुआ चारा सड़ने लगता था, जिससे पानी की गुणवत्ता खराब हो जाती थी. पानी में जहरीली गैसें बनने लगतीं और ऑक्सीजन की कमी हो जाती थी. इस गंदे पानी में मछलियां तनाव में आकर जल्दी बीमार पड़ जाती थीं, जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता था.

तालाब में बीमारी फैलने पर, पूरे तालाब में एक-समान दवा का छिड़काव करना लगभग नामुमकिन होता है. किनारे से फेंकी गई दवा पूरे पानी में नहीं मिल पाती, जिससे बीमारी पर काबू पाने में बहुत देर हो जाती है और कई बार किसानों की पूरी मछलियां ही मर जाती हैं.

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