कई किलोमीटर की सीधी- सपाट सड़क. इस सड़क के बायीं तरफ वैसा राजस्थान दिखाई दे रहा है जैसा अक्सर फिल्मों में दिखता है. ऐसा राजस्थान जैसा विदेशों से देखने के लिए पर्यटक आते हैं. यानी बड़े-बड़े रेत के पहाड़, धोरों में बसी रेगिस्तानी जिंदगियां. लेकिन दायीं तरफ की तस्वीर इससे एकदम उलट है. इस तरफ देखने पर महसूस होता है कि आप पंजाब में नहर के किनारे बसे किसी गांव में हो. हालांकि ये पंजाब नहीं है. पश्चिमी राजस्थान का रेगिस्तानी जिला बीकानेर है. हाइवे से उतरकर जैसे ही आप गांवों में दाखिल होते हैं, ये तस्वीर उभर कर आती है. दायीं तरफ का नजारा इंदिरा गांधी नहर के कारण हरा-भरा है.
मैं जा रहा हूं, बीकानेर में बज्जू तहसील के बेरासर गांव में. इस गांव में किसान पुरखाराम ने अपने खेतों के साथ-साथ घर में भी नवाचार किए हैं, जिसका उन्हें आर्थिक के साथ-साथ खेती की उपज में भी फायदा हो रहा है. दरअसल, पेशे से किसान 40 साल के पुरखाराम ने खेती में कई नवाचार किए हैं. वे रासायनिक खेती से धीरे-धीरे अलग होकर जैविक की ओर लौट रहे हैं. साथ ही घर में पाली जा रही मवेशी के गोबर से इन्होंने घर में बायो गैस प्लांट भी लगाया है.
पढ़िए उनकी सफलता की कहानी...
पुरखाराम किसान तक से बातचीत में बताते हैं, “मेरे पास करीब 15 बीघा खेती है. रेगिस्तानी इलाका होने से बहुत ज्यादा खेती इस क्षेत्र में नहीं हो पाती, लेकिन मेरे पास सिंचाई की सुविधा है इसीलिए मैं खरीफ और रबी दोनों सीजन की फसल ले लेता हूं. चूंकि मैं एक साधारण किसान हूं इसीलिए घर के खर्चों के लिए खेती पर ही निर्भर हूं. बीते एक साल से बढ़ी हुई महंगाई ने गांवों को भी काफी प्रभावित किया है. 1100 रुपये का सिलेंडर भराना एक किसान के लिए बहुत मुश्किल काम है. इसीलिए मैंने घर में बायो गैस प्लांट लगाने पर विचार किया.
यह विचार मुझे नजदीक ही बसे बज्जू में उरमूल सीमांत संस्थान से मिला. संस्थान के लोगों ने ही मुझे बताया कि गोबर से गैस भी बनाई जा सकती है और इससे आपके घर में गैस सिलेंडर का खर्चा खत्म किया जा सकता है. साथ ही संस्थान ने प्लांट लगाने के लिए 50 हजार रुपये की सब्सिडी भी दी.” पुरखाराम जोड़ते हैं, “मेरे पास 10 पशु हैं. उनके गोबर को मैं पहले बायो गैस प्लांट में डालता हूं और फिर उसकी स्लरी का उपयोग खेती में खाद के तौर पर करता हूं.”
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पुरखाराम कहते हैं कि बायो गैस प्लांट लगने से पहले मेरा महीने में एक से डेढ़ सिलेंडर खर्च होता था. यह करीब 1500 रुपये का खर्चा था. प्लांट लगने के बाद से मैंने एक भी बार सिलेंडर नहीं भराया है. इससे रसोई खर्च में कमी हुई है. वे कहते हैं, “बायोगैस से चलने वाले गैस चूल्हे से हादसों के डर से भी छुटकारा मिला है. क्योंकि ये साधारण गैस की तरह लाइटर से नहीं जलता. इसमें माचिस से ही चूल्हे को जलाया जा सकता है. इससे हमारे घर में गैस से संबंधित हादसे होने की संभावनाएं खत्म हो गईं.”
बायोगैस प्लांट में गोबर डालने के बाद गैस बनती है. गैस बनने के बाद डाला हुआ 15 दिन बाद गोबर स्लरी के रूप में बाहर निकलता है. पुरखाराम बताते हैं कि इस स्लरी को मैं चार फीट गहरे एक गढ्ढे में इकठ्ठा कर लेता हूं. ये गढ्ढा 10 फीट लंबाई और 10 फीट चौड़ाई का है. ये स्लरी ही हम किसानों की जान है. साथ ही इसमें छाछ, बेसन, गुड़ मिलाकर हम खाद के रूप में उपयोग करते हैं.
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साथ ही बायोगैस प्लांट की इस स्लरी से मुझे खेतों में उगने वाली खरपतवार से निजात मिल गई. क्योंकि गोबर में मौजूद घास या अन्न की बीज प्रोसेस हो गए. पहले खरपतवार हटाने के लिए 10-15 दिन के लिए मजदूर लगाने पड़ते थे. इससे मजदूरों का खर्चा भी खत्म हो गया.
बायोगैस प्लांट के कारण अब मैं धीर-धीरे जैविक खेती की ओर लौटने लगा हूं. यह बात जोड़ते हुए पुरखाराम कहते हैं, “पहले मेरा छह महीने में करीब 50 हजार रुपये यूरिया और डीएपी जैसी रासायनिक खाद में खर्च हो रहा था. इस तरह साल में दो फसलों पर करीब एक लाख रुपये का खर्चा सिर्फ खाद का था. अब ये खर्चा नहीं हो रहा. इस तरह साल में मुझे करीब 1.5 लाख रुपये की बचत हो रही है.”
पुरखाराम 14 बीघा खेती में से 5 बीघे पर पूरी तरह जैविक खेती कर रहे हैं. इससे पैदावार में थोड़ी कमी जरूर आई है, लेकिन लगातार ऑर्गेनिक करने से धीरे-धीरे उत्पादन बढ़ जाएगा. वे कहते हैं, “ जैविक अनाज की रेट बाजार में ज्यादा मिलती है. गेहूं जहां दो-ढाई हजार रुपये प्रति क्विंटल बिकते हैं. वहीं, जैविक तरीके से किए गए गेहूं तीन से साढ़े तीन हजार रुपये प्रति क्विंटल तक बिक जाते हैं. इससे मेरी खेती फायदे का सौदा बन गई है.”
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