पंजाब में लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान किसान यूनियनों ने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और उसके उम्मीदवारों के खिलाफ जमकर प्रदर्शन किया. कुछ घटनाओं में तो बीजेपी उम्मीदवारों को इन किसान यूनियनों ने परेशान किया और अपना विरोध दर्ज कराया. ये वो किसान यूनियनें हैं जिसमें से अधिकांश का नेतृत्व प्रभावशाली जाट सिखों के हाथ में है. किसान यूनियनें तब से बीजेपी का विरोध कर रही हैं जब से उन्होंने तीन कृषि कानूनों को रद्द करने के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया था. किसानों ने इस साल मार्च में हरियाणा और दिल्ली की सीमाओं पर फिर से आंदोलन शुरू किया. साथ ही उन्होंने बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से जुड़ी उनकी मांगों को पूरा करने की मांग की.
बीजेपी ने किसान यूनियनों के खिलाफ चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज कराई है. पार्टी ने यूनियनों पर 'कंगारू अदालतें' चलाने का आरोप लगाया है. किसान समूहों द्वारा किए जा रहे नकारात्मक प्रचार को नकारने के लिए बीजेपी ने राज्य में दलित समुदाय से संपर्क साधा. राज्य के मतदाताओं में जाटों के 18 प्रतिशत के मुकाबले 33 प्रतिशत हिस्सेदारी होने के बावजूद दलित राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में प्रमुख जाट सिखों से पीछे हैं. भूमिहीन दलित किसानों और खेत मजदूरों तक पहुंचने के बीजेपी के प्रयास से किसान यूनियनें नाराज हो गई हैं.
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देश में सबसे अधिक दलित मतदाता पंजाब में हैं, लेकिन वो एक समान नहीं हैं. लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान बीजेपी नेताओं ने पंजाब में दलित मतदाताओं के वोटों को आकर्षित करने की कोशिश की. राज्य में दलितों के दो प्रमुख समुदाय हैं - मजहबी सिख और वाल्मीकि. पंजाब के दलित मतदाताओं में से करीब 31 फीसदी मजहबी सिख हैं, जिनमें से अधिकांश भूमिहीन किसान और खेत मजदूर हैं और जो गांवों में रहते हैं. वे जाट-प्रभुत्व वाले किसान संगठनों से खुश नहीं थे. मजहबी सिखों का मानना है कि इन संगठनों ने कभी भी भूमि स्वामित्व अधिकारों जैसे उनके मुद्दों की पैरवी नहीं की.
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दलितों का यह समुदाय गांव की आम जमीन पर अपने अधिकारों का दावा करता रहा है. सरकारी अनुमानों के अनुसार, पंजाब में केवल 3 प्रतिशत दलितों के पास कृषि भूमि है. किसान यूनियन नेताओं पर आरोप है कि उन्होंने विरोध स्थलों पर अपनी संख्या बढ़ाने के लिए भूमिहीन किसानों और खेत मजदूरों का इस्तेमाल किया. बीजेपी नेताओं का कहना है कि एमएसपी पर कानून बनाने की मांग से केवल भूस्वामियों को फायदा होगा, मजदूरों और भूमिहीन किसानों को नहीं. किसान यूनियनों की तीखी प्रतिक्रिया का सामना करते हुए, पंजाब बीजेपी के कई उम्मीदवारों ने भूमिहीन किसानों और खेत मजदूरों से संपर्क करना शुरू कर दिया.
बीजेपी ने फरीदकोट लोकसभा सीट से मशहूर पंजाबी गायक हंस राज हंस को मैदान में उतारा है जो कि वाल्मीकि समुदाय से आते हैं. हंस को ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी दलित सभाओं को संबोधित करते देखा गया, जहां उन पर, उनके बेटे और पार्टी कार्यकर्ताओं पर प्रदर्शनकारियों की तरफ से हमले की भी बातें कही गईं. उन्होंने एक दलित पार्टी कार्यकर्ता का मामला भी उठाया, जिसे बीजेपी का समर्थन करने के वजह से पूर्व संघ नेताओं की तरफ से धमकाने की खबरें हैं. बीजेपी के अमृतसर लोकसभा सीट के उम्मीदवार तरनजीत सिंह संधू ने भी ग्रामीण इलाकों में किसान यूनियनों के कड़े विरोध के बावजूद दलित मतदाताओं तक पहुंच बनाई.
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दलितों, भूमिहीनों और विशेषकर किसान मजदूरों को लुभाने के बीजेपी के प्रयासों से किसान यूनियनें नाराज हो गई हैं. संयुक्त किसान मोर्चा के नेता स्वर्ण सिंह पंधेर ने बीजेपी पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने और जाट समुदाय और दलितों के बीच मतभेद पैदा करने का आरोप लगाया है. दिलचस्प बात यह है कि कई किसान यूनियन नेताओं ने दावा किया कि वे गैर-राजनीतिक हैं, लेकिन उनके बयानों से राजनीतिक बहस शुरू हो गई.
इस वर्ष फरवरी में बीकेयू (एकता सिद्धूपुर) के नेता जगजीत सिंह दल्लेवाल ने यह दावा करके हंगामा खड़ा कर दिया था कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण से प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता बढ़ गई है और वह इसे कम करना चाहते हैं. बीजेपी ने एक और प्रभावशाली दलित समुदाय वाल्मीकि को भी आकर्षित करने की कोशिश की. इस समुदाय की राज्य के शहरी इलाकों में अच्छी खासी आबादी है. मजहबी और वाल्मीकि दोनों समुदाय दलित आबादी का कुल 13 प्रतिशत हिस्सा हैं. कांग्रेस ने साल 2022 में दलित वोटों को आकर्षित करने के लिए चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया. चन्नी रामदासिया सिख समुदाय से हैं. हालांकि, इस कदम से वाल्मीकि समुदाय कांग्रेस से दूर हो गया.
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किसान यूनियन नेताओं की तरफ से ध्रुवीकरण पर बयान जारी करने के बाद मजहबी दलित सिखों को आकर्षित करने की बीजेपी की रणनीति काम करती दिख रही है. बीजेपी दलित वोटों का ध्रुवीकरण करने में सफल हो भी सकती है और नहीं भी, लेकिन यह रणनीति अगले विधानसभा चुनाव में लाभकारी सिद्ध हो सकती है. गौरतलब है कि पूरा दलित समुदाय का ध्रुवीकरण करना एक मुश्किल काम होगा क्योंकि वो 39 उप-जातियों में विभाजित हैं. उत्तर प्रदेश और बाकी राज्यों के विपरीत, पंजाब में दलित मतदाता केवल हिंदू नहीं हैं. वे सिख धर्म, ईसाई धर्म और बौद्ध धर्म सहित कई अन्य धर्मों से भी जुड़े हैं.
लोकसभा चुनाव के नतीजों को अलग रखें तो पंजाब में बीजेपी का वोट शेयर लगातार बढ़ रहा है. साल 2017 में जब भगवा पार्टी शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन में थी, तब हिंदू बहुल 23 विधानसभा क्षेत्रों में भगवा पार्टी का वोट शेयर 5.4 प्रतिशत था. साल 2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा का वोट शेयर बढ़कर 6.6 प्रतिशत हो गया. साल 2019 के लोकसभा चुनावों में यह 9.63 प्रतिशत था.