पश्चिम बंगाल में कृषि एक महत्वपूर्ण बदलाव के दौर से गुजर रही है. यहां के कृषि पैटर्न में बदलाव देखा जा रहा है. राज्य में अब गेहूं की खेती में कमी देखी जा रही है. इसके पीछे की वजह यह है कि अब किसान गेहूं की खेती (Wheat farming) से दूर भाग रहे हैं. किसानों का रुझान अब केला, मक्का और दाल की खेती की तरफ बढ़ रहा है. खेती के दौर में यह बदलाव बांग्लादेश की सीमा से लगे मुर्शीदाबाद और नादिया जिले में हो रहा है. बताया जा रहा है कि बेमौसम बारिश से हो रही फसल की बर्बादी और गेहूं की फसल में लगने वाले ब्लास्ट रोग से होने वाले नुकसान के कारण किसानों का गेहूं की खेती से मोहभंग हो रहा है.
गेहूं की खेती से हो रहे मोहभंग के पीछे का एक प्रमुख कारण फंगस से होने वाले ब्लास्ट रोग को बताया जा रहा है. इससे फसल काफी प्रभावित होती है. पहली बार 2016 में इस बीमारी का पता चला था. इसके बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने राज्य में इस रोग को फैलन से रोकने के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों और दो जिलों में गेहूं की खेती (Wheat farming) पर दो साल के लिए प्रतिबंध लगा दिया था. इसके बाद फिर से इन क्षेत्रों में 2022 तक प्रतिबंध बढ़ा दिया गया है.
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'डाउन टू अर्थ' की एक रिपोर्ट के मुताबिक सरकारपुरा गांव के किसान मोंटू मंडल ने कहा कि उनके पास 3.7 हेक्टेयर कृषि योग्य जमीन है. इसमें से 0.75 हेक्टेयर जमीन भारत और बांग्लादेश की सीमा पर स्थित है. उन्होंने बताया कि पहले परंपरागत रूप से वो गेहूं की खेती (Wheat farming) करते थे, पर अब आर्थिक रूप से यह अब उनके लिए संभव नहीं है. मंडल ने बताया कि अब वे गेहूं की खेती करने वाले 80 फीसदी जमीन में केले की खेती करते हैं. मंडल ने कहा कि उन्होंने गेहूं के स्थान पर केले का उपयोग पूरी तरह से नहीं किया है. इसका एकमात्र कारण यह है कि सीमा सुरक्षा बल सीमावर्ती क्षेत्रों में ऊंचे पेड़ों को उगने की अनुमति नहीं देते हैं.
मंडल ने कहा, गेहूं की खेती (Wheat farming) में पानी की खपत होती है, पर बाजार में इसकी कीमत नहीं मिलती है. सरकार खाद्यान्न की कीमतों पर नज़र रखती है क्योंकि यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली का हिस्सा है. उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा कि ओलावृष्टि और बेमौसम बारिश और मौसमी आपदाओं के कारण गेहूं की पैदावार को काफी नुकसान होता है. वहीं केले की खेती के फायदे बताते हुए एक अन्य किसान रिंटू मंडल ने कहा कि इसकी खेती अधिक फायदेमंद होती है. खास कर त्योहारी सीजन में इसकी मांग अधिक होती है. इस दौरान अच्छी कमाई होती है. हालांकि रिंटू ने यह भी कहा कि केले की खेती भी एक जुआ की तरह है, क्योंकि भारी बारिश या बाढ़ से इसकी खेती को भी नुकसान हो सकता है. फिलहाल यह गेहूं से एक बेहतर विकल्प है.
रिंटू ने बताया कि 2016 में मुर्शीदाबाद जिले के रानीनगर ग्राम पंचायत के मजहरदियार गांव के बैदुल इस्लाम की फसल पर गेहूं ब्लास्ट जैसे लक्षण देखे गए थे. इसके बाद से गेहूं की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. इसके बाद से बैदुल गेहूं के बजाय जूट, दाल और अन्य सब्जियों की फसलें उगा रहे हैं. बैदुल ने कहा कि गेहूं उगाने पर प्रतिबंध से किसानों पर व्यापक असर पड़ा है. किसान चिंतित हैं कि बीमारी दोबारा लौटेगी और बड़े पैमाने पर नुकसान होगा.
इसके बाद कुछ ऐसे भी किसान हैं जो धान की खेती कर रहे हैं. इसके साथ-साथ इस इलाके में मक्का की खेती भी काफी जोर पकड़ रही है. राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, मक्के का उत्पादन आठ गुना बढ़ गया है. मक्के का उत्पादन 2011 में 325,000 टन से बढ़कर 2023 में 2.9 मिलियन टन हो गया है. पिछले पांच वर्षों में मक्के की खेती का औसत क्षेत्रफल 264,000 हेक्टेयर से बढ़कर 400,000 हेक्टेयर हो गया है.
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पश्चिम बंगाल के कोलकाता के एक कृषि अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि गेहूं उत्पादकों को प्रति क्विंटल लगभग 3,200-3,800 रुपये मिलते हैं, जबकि मक्के से उन्हें लगभग 1,800 रुपये मिलते हैं. अधिकारी ने कहा कि पोल्ट्री और खाद्य प्रसंस्करण कंपनियां भी मक्का खरीदती हैं, जिससे किसानों को अच्छी कीमत मिलती है. किसान मक्के को गेहूं और अन्य फसलों की जगह एक नई नकदी फसल के रूप में देखते हैं. आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले दशक में दालों का उत्पादन 142,000 टन से तीन गुना बढ़कर 440,000 टन हो गया है. तिलहन उत्पादन लगभग दोगुना होकर 700,000 टन से 1.3 मिलियन टन हो गया है.