जलवायु परिवर्तन के कारण देश में तापमान में वृद्धि, सूखा और बाढ़ जैसी स्थितियां तेजी से बढ़ रही हैं, जिनका सबसे अधिक प्रभाव गेहूं की फसल पर पड़ रहा है. पहाड़ी क्षेत्रों में भी जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में बढ़ोतरी और सूखे जैसी परिस्थितियां उत्पन्न हो रही हैं. इसका असर फसल के अंकुरण, विकास और उत्पादन क्षमता पर नकारात्मक रूप से पड़ता है. इससे किसानों की कड़ी मेहनत और अधिक के बावजूद आशा अनुरूप उपज नहीं मिल पाती है. इन चुनौतियों से निपटने के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने विशेष रूप से जलवायु सहनशील किस्मों को विकसित किया है, जो तापमान में उतार-चढ़ाव और पानी की कमी जैसी स्थितियों में भी अच्छी उपज दे सकती हैं. ऐसे में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने किसानों को जलवायु सहनशील किस्मों की खेती करने की सलाह दी है.
इन किस्मों के माध्यम से किसान कम पानी और सूखे की स्थिति में भी बेहतर पैदावार प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि ये किस्में तापमान के उतार-चढ़ाव को सहन करने में सक्षम होती हैं. ICAR द्वारा विकसित तीन जलवायु सहनशील किस्में विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों जैसे जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के लिए सुझाई गई हैं. ये किस्में न केवल सूखे के प्रति सहनशील हैं, बल्कि तापमान में उतार-चढ़ाव के बावजूद भी उच्च उत्पादन दे सकती हैं.
आईसीएआर-आईएआरआई के शिमला केंद्र द्वारा विकसित एचएस 507, जिसे पूसा सकेती भी कहा जाता है, विशेष पहाड़ी राज्यों में जलवायु सहनशील और सूखा सहनशील किस्म है. यह किस्म सिंचित और वर्षा आधारित क्षेत्रों के लिए अनुकूल है और गर्मी के प्रभाव से बचाने में सक्षम है. यह किस्म 170-175 दिनों में पककर तैयार हो जाती है और जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान की चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना कर सकती है. इसकी उत्पादन क्षमता 24-25 क्विंटल प्रति एकड़ है, और यह पहाड़ी क्षेत्रों के निचले एवं मध्यवर्ती इलाकों में सिंचित और असिंचित भूमि पर समय पर बुवाई के लिए बेहतर मानी जाती है. इस किस्म में पीले और भूरे रतुए, पत्ता झुलसा और करनाल बंट रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता है. इसके दाने शरबती, अर्ध कठोर और मध्यम मोटाई के होते हैं और इसके पौधों की लंबाई लगभग 95 सेंटीमीटर होती है.
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पहाड़ी राज्यों में जलवायु सहनशील और सूखा सहनशील HS 562 एक अधिक उपज देने वाली किस्म है, जिसकी प्रति एकड़ उत्पादन क्षमता लगभग 25 क्विंटल है. यह सिंचित और वर्षा आधारित पहाड़ी क्षेत्रों के लिए बेहतर है. यह उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र में समय पर बुवाई करने पर बेहतर पैदावार देती है और पीले धारीदार रोग के प्रति प्रतिरोधी है. यह किस्म हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड में खेती के लिए अनुसंशित है और जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान की चुनौतियों का सामना करने में सक्षम है. इसे भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI), पूसा रीजनल सेंटर शिमला द्वारा विकसित किया गया है और इसके पौधे की लंबाई 99 से 101 सेंटीमीटर के बीच होती है. यह बारानी और सिंचित दोनों परिस्थितियों में अनुकूल है, जिसमें बारानी क्षेत्र में 15-17 अक्टूबर और सिंचित क्षेत्र में 1-15 नवंबर के बीच बुवाई की जाती है. यह किस्म पीले और भूरे रतुए रोगों के प्रति प्रतिरोधी है.
हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर द्वारा विकसित HP 349 किस्म विशेष रूप से सूखा सहनशील है और जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न तापमान के उतार-चढ़ाव के प्रति प्रतिरोधक है. इस किस्म की प्रति एकड़ उत्पादन क्षमता लगभग 25 क्विंटल है. इसकी बालियां अच्छे से भरे हुए अनाज से भारी होती हैं और पौधों की लंबाई 86 से 102 सेंटीमीटर तक होती है, जबकि सामान्य किस्मों की लंबाई 90 से 95 सेंटीमीटर होती है. अधिक लंबाई के कारण इसके पौधों के गिरने या झुकने की संभावना अधिक होती है, लेकिन यह किस्म बेहतर उत्पादन देने में सक्षम है.
अक्टूबर-नवंबर में अधिक तापमान के चलते गेहूं की फसल की अंकुरण क्षमता प्रभावित होती है और खेत में नमी की कमी के कारण उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. वहीं दूसरी तरफ मार्च और अप्रैल के महीनों में तापमान के अचानक बढ़ने से गेहूं की फसल उपज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि इस समय फसल के पौधों में बाली निकलने, दाने बनने और उनके सख्त होने की प्रक्रिया चलती है. अगर इस समय तापमान अधिक हो जाता है, तो दानों का आकार छोटा रह सकता है और फसल की गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है. ऐसी परिस्थितियों में किसानों को पहले से ही सतर्क रहना चाहिए और जलवायु अनुकूल गेहूं की किस्मों का चयन करना चाहिए, जो प्रतिकूल मौसम में भी बेहतर उत्पादन दे सकें. किसानों इन किस्मों को अपनाकर बेहतर फसल उत्पादन के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाव कर गेहूं की खेती से अधिक लाभ ले सकते हैं.
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