हिन्दी के फिल्म जगत में हम कुछ पाकिस्तानी अभिनेताओं और आतिफ़ जैसे मशहूर गायक से तो वाकिफ हैं, लेकिन अक्सर पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट्री का ज़िक्र नहीं होता. तमाम राजनीतिक हलचलों से गुजरते इस देश की फिल्म इंडस्ट्री एक बड़े उद्योग के तौर पर फल-फूल न सकी. लेकिन पाकिस्तान में भी प्रयास हुए थे. सार्थक सिनेमा बनाने के. अफसोस, इन प्रयासों को वो परवाज़ न मिल सकी जो एक सामान्य लोकतन्त्र में मिल सकती थी. फिर भी, ‘बोल’ ‘खुदा के लिए’ ‘दुख्तार’ और ‘जॉय लैंड’ पिछले दो दशकों में आई कुछ ऐसी पाकिस्तानी फिल्में हैं जिन्हे दुनिया भर में सराहा गया.
बहरहाल, 1959 में पाकिस्तान के कुछ चुनिन्दा कलाकारों ने मिल कर कोशिश की एक प्रभावपूर्ण फिल्म बनाने की, एक ऐसे विषय पर जिसे फिल्मों में अधिक तवज्जो नहीं दी गई. यह विषय था तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान, यानी आज के बांग्लादेश में मेघना नदी के तट पर रहने वाले मछुआरे. अपनी जीविका के लिए पूरी तरह से मछली पकड़ने पर निर्भर इन भूमिहीन ग्रामीणों का बस एक ही सपना होता है. या तो उन्हें एक छोटा सा ज़मीन का टुकड़ा मिल जाये या फिर एक छोटी सी नाव.
एक सीधा-सादा जीवन और इच्छाएं रखने वाले इन मछुआरों के जीवन पर बांग्ला में माणिक बंदोपाध्याय का उपन्यास है. ‘पद्मा नदीर मांझी’. फिल्म की कहानी इसी उपन्यास से प्रेरित मानी जाती है हालांकि फिल्म में ऐसा कोई ज़िक्र कहीं नहीं है. वैसे देखा जाये तो, यह फिल्म पाकिस्तान, भारत, बांग्लादेश और ब्रिटेन इन चार देशों के कलाकारों के सहयोग से बनी और इस अर्थ में यह हमारी सांझी सांस्कृतिक विरासत की एक अद्भुत मिसाल ही नहीं बल्कि हमारे समाज पर एक गंभीर कमेंट्री भी है.
दिलचस्प बात ये है कि जब ‘पद्मा नदीर मांझी’ उपन्यास लिखा गया था, तब देश आज़ाद नहीं हुआ था, लेकिन जब फिल्म बनाना शुरू हुआ तब देश आज़ाद हो गया था और उसका विभाजन भी. जब फिल्म रिलीज़ करने की कोशिश की गयी तो पाकिस्तान में सैन्य शासन लागू हो गया. उसके करीब एक दशक बाद बांग्लादेश का जन्म हुआ, जहां ये फिल्म शूट की गयी थी. इस तरह इस फिल्म के बनने की कहानी एक तरह से, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के राजनीतिक माहौल की भी कहानी है.
इस फिल्म का स्क्रीनप्ले और गीत लिखे थे मशहूर शायर फैज अहमद फैज ने और संगीत दिया था. बंगाल के प्रसिद्ध संगीतकार तिमिर बरन ने. फैज द्वारा लिखी यह एकमात्र फिल्म है. इसके निर्देशक थे ए जे करदार. ए जे करदार पाकिस्तानी थे लेकिन उनके भाई ए आर करदार भारत में हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री के जाने माने निर्देशक थे. प्रोड्यूसर थे पाकिस्तान के नौमान तसीर. खान अता उर रहमान, जो बाद में बांग्लादेश के नामचीन अभिनेता के रूप में मशहूर हुए, मिया के दोस्त कासिम की भूमिका में थे, पश्चिम बंगाल की अभिनेत्री तृप्ति मित्रा ने माला का किरदार निभाया. कैमरा संभाला वाल्टर लस्सेली ने और सम्पादन था बिल बोवेट का.
फिल्म की कहानी मिया, कासिम और गंजू नाम के मछुआरों की ज़िंदगी के इर्द-गिर्द घूमती है. तीनों का सपना है कि उनकी अपनी एक नाव हो या थोड़ी-बहुत ज़मीन हो ताकि वे अपनी जीविका आराम से चला सकें. लेकिन रोजाना की कमाई का ज़्यादातर पैसा स्थानीय साहूकार लाल मियां का कर्जा चुकाने में चला जाता है. मिया के घर में हाल ही में बेटी हुई है सो वह अपनी साली माला को पत्नी की मदद के लिए बुला लेता है.
माला पर साहूकार लाल मियां की भी नज़र है जबकि वह कासिम से प्यार करती है. उधर गंजू भी नाव खरीदने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा है. अंत में, मिया अपनी बीवी के रहे-सहे जेवर बेच कर और अपने बेटे के बचाए हुए. कुछ पैसे जोड़ कर भी नाव के लिए पैसे नहीं जुटा पाता. उधर गंजू नाव तो खरीद लेता है लेकिन उस पर सवार होने से पहले ही टीबी से दम तोड़ देता है.
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‘जागो हुआ सवेरा’ फिल्म के शीर्षक में तो एक सकारात्मक भाव है लेकिन फिल्म अंत तक कडवे यथार्थ को ही दर्शाती है- कि सवेरा तो आता ही है. चाहे जितना भी कष्ट हो या संघर्ष, मनुष्य को अगले दिन की मशक्कत के लिए तैयार होना ही होता है.
जैसा कि नवयथार्थवादी फिल्मों में चलन है, बंगाल की सुविख्यात अभिनेत्री तृप्ति मित्रा को छोड़ कर ‘जागो हुआ सवेरा’ में अन्य कलाकारों ने पहले कभी कैमरे के सामने काम नहीं किया था. फिल्म मिड शॉट्स और क्लोज़ अप्स के जरिये व्यक्तिगत कहानियां कहते हुए एक पूरे समुदाय के जीवन और उसके दर्द को बयान करती है. चूंकि कासिम, मिया और गंजू के जरिए फिल्म मछुआरे समाज की असहायता, निर्धनता को दर्शाती है इसलिए भावप्रवण पार्श्व संगीत के साथ तड़पती हुई मछलियों, नदी में मेहनत करते मछुआरों, नावों और मछली बाज़ार के बहुत से सीक्वेंस हैं.
फिल्म को ऑन-लोकेशन शूट किया गया है इसीलिए यह एक डॉक्युमेंट्री जैसी तथ्यात्मक फिल्म लगती है. बिल बौवेट के सम्पादन में, मछुआरों के शारीरिक रूप से थकाऊ काम, उनकी हांफती सांसों, पसीने और नाव से अपने घर तक आते थके हारे चेहरों, नंगे बदन, फटे हुए कपड़ों के जरिये बहुत कुशलता से दिखाया गया है.
फिल्म के रिलीज़ होने की कहानी भी उतनी ही उदास है जितना यह फिल्म. जब ‘जागो हुआ सवेरा’ बन कर तैयार हुयी, उसके कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान पर जेनरल अयूब के नेतृत्व में सैन्य शासन लागू हो गया. फैज अहमद फैज और अन्य अनेक शायरों और कलाकारों ‘कम्युनिस्ट’ बता कर गिरफ्तार कर लिया गया और सरकार ने प्रोड्यूसर नौमन तसीर को हिदायत दी कि वे फिल्म रिलीज़ ना करें. बहरहाल पाकिस्तानी सरकार के विरोध के बावजूद तसीर ने लंदन में फिल्म का प्रीमियर किया. जब तक पाकिस्तान में यह रिलीज़ हुई, इसकी मार्केट वैल्यू और आडियन्स दोनों खत्म हो चुके थे, नतीजतन फिल्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो गई.
बहरहाल, इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में बहुत प्रशंसा मिली. ऑस्कर अवार्ड्स में सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म की श्रेणी में भेजी जाने वाली यह पहली पाकिस्तानी फिल्म थी. मॉस्को फिल्म फेस्टिवल में इसे पुरस्कृत किया गया. और फिर लगभग छह दशक बाद प्रोड्यूसर नौमन तासीर के बेटे अंजुम तसीर की कोशिशों के फलस्वरूप इस फिल्म को रिवाइव किया गया.
एक बार फिर 2007 में फ्रेंच फिल्म फेस्टिवल में इसकी सराहना की गयी. वर्ष 2018 में मुंबई अकादेमी ऑफ मुविंग इमेजेस (MAMI) ने तय किया कि इस फिल्म को भारतीय दर्शकों तक भी पहुंचाया जाये, लेकिन भारत-पाक रिश्तों में आई कड़ुवाहट के कारण इस फिल्म को फेस्टिवल में नहीं दिखाया गया और एक बार फिर कला राजनीति के सामने असहाय साबित हुयी.
फिर भी, बांग्लादेश के एक निश्चित इलाके के मछुआरों पर बनी ये फिल्म भारत-पाक और बांग्लादेश –इन तीनों देशों में मछुआरों के हालात पर बनी एक प्रभावपूर्ण फिल्म है. चाहें आम लोगों से इसे इतने बरसों दूर रखा गया लेकिन फिर भी यह विश्व सिनेमा पटल पर अपनी अद्वितीय पहचान बनाए हुये है. यह साबित करती है कि कला और साहित्य राजनीति से परे हैं. क्योंकि राजनीतिक उतार चढ़ाव अस्थायी होते हैं जबकि विभिन्न कलाओं और साहित्य में अभिव्यक्त हमारे विचार, टिप्पणी और समाज-चित्रण स्थानीय होते हुये भी सार्वभौमिक और सार्वकालिक.