कोटा यानी PDS में देश की करोड़ों आबादी को गेहूं-चावल जैसे अनाज दिए जाते हैं. इसे आम बोलचाल में राशन भी कहा जाता है. देश में वर्षों से यह चलन जारी है. लेकिन अब इस कड़ी में एक बड़ी मांग उठ रही है. यह मांग है कि मिलेट्स यानी मोटे अनाजों को देने की. एक्सपर्ट मानते हैं कि कोटा में अगर लोगों को मोटे अनाज भी दिए जाएं तो उसके कई फायदे हैं. ये फायदे आर्थिक, पर्यावरणीय और खाद्य सुरक्षा से जुड़े हैं. इस पर कई तरह की रिसर्च भी हुई है जिसमें सबसे प्रमुख है टाटा कॉर्नेल इंस्टीट्यूट (TCI) की स्टडी. यह स्टडी विस्तार से बताती है कि कोटा में अनाजों के साथ मिलेट्स देने के क्या फायदे हैं. आइए इन फायदों को 5 पॉइंट्स में समझ लेते हैं.
देश की तकरीबन 60 फीसद आबादी यानी 80 करोड़ लोगों को 5 किलो सब्सिडी अनाज की सुविधा दी जाती है. यह हर महीने की सुविधा है. ऐसे में अगर इतनी बड़ी आबादी को कोटे में गेहूं-चावल के साथ मिलेट्स दें तो लोगों में पोषक तत्वों की कमी को दूर किया जा सकता है. चूंकि मोटे अनाज कई पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं, इसलिए लोगों के भोजन के जरिये पोषक तत्व बढ़ाने में कोटे का मिलेट्स बड़ा रोल निभा सकता है.
कृषि कार्यों से पर्यावरण और मिट्टी की सेहत पर बुरा असर पड़ता है. यह बात जगजाहिर है. दूसरी ओर, मिलेट्स की खेती इस बुरे असर को कम करने या खत्म करने में बड़ा रोल निभाता है. मिलेट्स ऐसी फसल होती है जिसमें न के बराबर या बिना खादों के उपज ली जा सकती है. केमिकल खाद मिट्टी को बर्बाद करने के साथ हवा और पानी को भी दूषित करते हैं. इससे पूरा पर्यावरण खतरे में जाता है. इसने बचाव के लिए मिलेट्स की खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. खेती तभी बढ़ेगी जब भोजन में मिलेट्स की मांग बढ़ेगी. इस मांग को बढ़ाने में कोटे का राशन बड़ा रोल निभा सकता है.
कोटे में दिए जाने वाले राशन का खर्च केंद्र और राज्य सरकारें वहन करती हैं. अनाजों की खरीद, उठान से लेकर परिवहन और उसे बांटने का खर्च देखें तो यह काम बहुत महंगा साबित होता है. इसी के तहत कोटे के अनाज की 'इकोनॉमिक कॉस्ट' निकाली जाती है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, कोटे में दिए जाने वाले चावल की कीमत 36 रुपये तो चावल की कीमत लगभग 25 रुपये प्रति किलो तक आती है. टीसीआई की रिपोर्ट बताती है कि कुल 80 करोड़ लोगों में अगर 20 करोड़ लोगों को 1 किलो चावल की जगह 1 किलो मिलेट्स दिया जाए तो 913 करोड़ रुपये तक लागत बचाई जा सकती है. यह खर्च इसलिए घट जाएगा क्योंकि गेहूं और चावल की तुलना में कोटे के लिए बाजरा और ज्वार की खरीद सस्ती और आसान होती है.
कोटे में जिन अनाजों को दिया जाता है, उसे उगाने में पर्यावरण और मिट्टी को भारी कीमत चुकानी होती है. खासकर पानी को. और भी कई तरह के इनपुट्स हैं जो अनाजों में बड़ी मात्रा में लगते हैं. अगर गेहूं और चावल की खेती को कम करते हुए उसकी जगह मोटे अनाजों की खेती को बढ़ावा दिया जाए तो उससे बड़े स्तर पर पर्यावरण की सुरक्षा की जा सकती है. 1 किलो मिलेट्स उगाने में जहां 79 लीटर पानी की खपत होती है, वहीं 1 किलो गेहूं में 596 लीटर तो 1 किलो चावल में 729 लीटर पानी खर्च होता है. तेजी से गिरते भूजल स्तर को बचाने के लिए जरूरी है कि मिलेट्स की खेती को बढ़ावा दिया जाए.
कोटे में मिलेट्स को बढ़ावा देने से किसानों की आय बढ़ाई जा सकती है. ये किसान मुख्य तौर पर कम आमदनी वाले होते हैं. कोटे में मिलेट्स देने से उसकी मांग बढ़ेगी और अधिक से अधिक किसान इसे उगाने के लिए प्रेरित होंगे. 2022-23 में सरकार ने 70 लाख टन मोटे अनाजों की खरीद की थी. इसकी अधिकांश मात्रा कर्नाटक में खरीदी और बांटी गई. एक्सपर्ट की सलाह है कि सरकार को राजस्थान और महाराष्ट्र में मोटे अनाजों की खरीद बढ़ानी चाहिए जहां 40 और 33 परसेंट उपज होती है. इससे छोटे किसानों की आमदनी बढ़ जाएगी.