पंजाब के बासमती किसानों और निर्यातकों को तरणतारण में जल्द ही एक बहुउद्देशीय अत्याधुनिक सेंटर की सौगात मिल सकती है. पंजाब राइस मिलर्स एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन (PRMEA) ने राज्य सरकार और कृषि विभाग को प्रस्ताव भेजकर बासमती अनुसंधान, बीज विकास, कीटनाशक और डीएनए परीक्षण को लेकर केंद्र बनाने की मांग उठाई है, जिसे केंद्र की तरफ से APEDA और राज्य सरकार की ओर से भी अच्छा रिस्पॉन्स मिल रहा है. सेंटर का नाम गुरु अर्जुन देव बासमती अनुसंधान और विस्तार केंद्र रखने का प्रस्ताव है.
दरअसल, भारत का बासमती निर्यात दुनियाभर के बाजारों में जोर पकड़ रहा है. इससे किसानों, व्यापारी वर्ग और सरकार सभी की तगड़ी कमाई हाे रही है. इस बासमती को उगाने में पंजाब के किसान ही सबसे ज्यादा योगदान देते हैं. लेकिन, इस वक्त किसानों को पेस्टिसाइड के चलते किसानों और निर्यातकों को नुकसान का सामना करना पड़ रहा है. ऐसे में तारणतरण में बनने वाला यह सेंटर किसानों और निर्यातकों के लिए बहुत ही मददगार साबित होगा. यही वजह है कि इसे लेकर कवायद तेज हो गई है.
प्रस्तावित संस्थान में किसानों को फील्ड ट्रेनिंग दी जाएगी और जैविक खेती पर भी काम होगा. साथ ही यहां हाई-टेक कीटनाशक और डीएनए टेस्टिंग लैब बनेगी, जिससे बासमती की क्वालिटी को वैश्विक मानकों के हिसाब से बनाए रखने में मदद मिलेगी. इसमें APEDA (कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण), वाणिज्य मंत्रालय और भारत सरकार के तहत बासमती निर्यात विकास फाउंडेशन फंडिग में बड़ी भूमिका निभाएंगे.
पंजाब सरकार ने इस प्रोजेक्ट के लिए कृषि विभाग की जमीन को लंबी अवधि के पट्टे पर देने में रुचि ली है. तरणतारण के उपायुक्त राहुल ने जिले में उक्त सेंटर को लेकर खब्बे डोगरा, तरण तारण में एपीडा को जमीन आवंटन की सिफारिश को लेकर राज्य के कृषि और किसान कल्याण विभाग के सचिव डॉ. बसंत गर्ग को पत्र लिखा है. उन्होंने बताया कि इस प्रोजेक्ट में एपीडा 25 करोड़ रुपये निवेश करने को तैयार है.
बासमती भारत का सबसे प्रीमियम क्वालिटी का सुगंधित चावल है, जिसके निर्यात और घरेलू माेर्च पर भी कीटनाशक, फफूंदनाशक की मात्रा का असर देखने को मिलता है. दरअसल, बासमती की खेती में थियामेथोक्सम और आइसोप्रोथिओलेन जैसी केमिकल दवाएं इस्तेमाल होती हैं. थियामेथोक्सम एक कीटनाशक है, जिसका इस्तेमाल ब्राउन प्लांट हॉपर जैसी कीट के प्रकोप को कंट्रोल करने में किया जाता है. वहीं, आइसोप्रोथिओलेन एक फंगीसाइड है, जो फफूंदजनित रोगों की रोकथाम में इस्तेमाल किया जाता है.
ये दोनों ही ऐसे रसायन है, जिनके इस्तेमाल की मात्रा तय की गई है. चावल में इसकी ज्यादा मात्रा स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है. इसलिए इनके इस्तेमाल पर अधिकतम अवशेष स्तर (MRL-Maximum Residue limit) लगाई गई है. बासमती चावल के जानेमाने वैज्ञानिक डॉ. रितेश शर्मा के अनुसार, भारत में इन दोनों रसायनों का एमआरएल 0.02 पीपीएम (0.02 मिलीग्राम/किग्रा) सेट है. इससे नीचे इन्हें माप नहीं जा सकता है. ऐसे में जब भी मात्रा इससे अधिक होती है तो आयातक देश इसे लेने से मना कर देते हैं. लेकिन, अब आधुनिक जांच लैब खुलने से इसकी जांच आसान होगी और किसानों-निर्यातकों को नुकसान का सामना नहीं करना पड़ेगा.