Tingya: एक बच्चे के जरिए महाराष्ट्र के किसानों की दशा दिखाती है ये कहानी

Tingya: एक बच्चे के जरिए महाराष्ट्र के किसानों की दशा दिखाती है ये कहानी

एक बच्चे के नज़रिये से बनाई गयी ये फिल्म न सिर्फ दिल छू लेती है बल्कि गंभीर विषयों को भी बहुत कुशलता से हाइलाइट करती है. फिल्म के निर्देशक मंगेश हाड़वले की यह पहली फिल्म थी.

एक बच्चे के माध्यम से महाराष्ट्र के किसानों की दशा दर्शाती कहानीएक बच्चे के माध्यम से महाराष्ट्र के किसानों की दशा दर्शाती कहानी
प्रगत‍ि सक्सेना
  • Noida,
  • Aug 06, 2023,
  • Updated Aug 06, 2023, 10:36 AM IST

महाराष्ट्र के किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है. भारत मे सबसे ज़्यादा किसान आत्महत्या की घटनाएं महाराष्ट्र में ही होती हैं. कर्ज माफी जैसे कई सरकारी प्रयासों के बावजूद राज्य में वर्ष 2022 में ही कुल 29,42 किसानों ने आत्महत्या की. कठिन परिस्थितियों, और मौसम की प्रतिकूलता झेलते किसानों का जीवन आज भी संघर्षशील है. किसानों की यह व्यथा आधुनिक मराठी कहानियों, कविताओं और फिल्मों में भी अभिव्यक्त हुई है. आज हम बात करते हैं ऐसी ही एक फिल्म की, जो किसानों की बात तो करती है लेकिन एक बच्चे के माध्यम से. ‘टिंग्या’ एक सात साल के बच्चे टिंग्या की कहानी है.

टिंग्या अपने मां-बाप, बड़े भाई पाप्या और दो बैलों चितंग्या और पतंग्या के साथ महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव में रहता है. टिंग्या को अपने बैल चितंग्या से बहुत प्यार है. दिन-रात वह उसके साथ लगा रहता है. टिंग्या की एक और दोस्त है, उसकी पड़ोसी रशीदा.

कर्ज के बोझ तले दबे किसान की कहानी

टिंग्या के पिता करभरी एक गरीब किसान हैं और क़र्ज़े के बोझ तले दबे हैं. फिर भी यह परिवार अपने संघर्षपूर्ण जीवन में संतुष्ट है. बदकिस्मती से, चितंग्या एक खाई में गिर जाता है और उसकी एक टांग घायल हो जाती है. टिंग्या दिन-रात एक कर देता है चितंग्या की सेवा में. टिंग्या की मां और पिता भी बहुत कोशिश करते हैं कि चितंग्या स्वस्थ हो जाए, आखिर वह उनकी रोज़ी-रोटी का सहारा है, उनके छोटे से खेत को जोतता है. मंदिर का प्रसाद, घरेलू इलाज झाड़-फूंक जब कुछ भी काम नहीं आता तो करभरी सोचता है कि चितंग्या को बेच दिया जाए, ताकि कुछ पैसे आएं जिससे वह बैल भी खरीद सके और साहूकार का कर्ज भी चुका सके.

टिंग्या का बैल के प्रति प्यार 

टिंग्या जब यह सुनता है कि चितंग्या इतना बीमार है कि उसे कसाई को बेचने के सिवा कोई चारा नहीं, तो वह पहले तो अपने पिता से लड़ता है, मां से जूझता है फिर रशीदा की मदद लेकर खुद एक डॉक्टर लेकर आता है. वह डॉक्टर भी जवाब दे देता है लेकिन टिंग्या हार नहीं मानता. उधर रशीदा की बीमार नानी भी खटिया पकड़ लेती है तो टिंग्या सवाल करता है कि चितंग्या की तरह नानी को भी कसाई घर क्यों नहीं भेज देते.

मुंशी प्रेमचंद की कहानी जैसी है ये फिल्म

मन ही मन पिता करभरी भी चितंग्या को नहीं बेचना चाहता लेकिन आर्थिक हालात ऐसे हैं कि उसके मन में भयावह आत्मघाती ख्याल उभरने लगते हैं. टिंग्या की कोशिश कि चितंग्या को न बेचा जाए और कर्ज़ में डूबे करभरी की ज़ेहनी कश्मकश पूरी फिल्म इन दो कथानकों के बीच किसानों और खेती से जुड़े मुद्दों को प्रखरता से उठाती है. एक बच्चे के मासूम सवालों और प्रयासों में जहां बाल मन का जीवंत चित्रण है, वहीं गरीबी और संसाधन विहीन व्यक्ति की असहायता का दर्द भी. इन अर्थों में यह फिल्म मुंशी प्रेमचंद की कहानी जैसी लगती है, वहीं टिंग्या का किरदार सत्यजित रे के अपू (पाथेर पांचाली) और ‘मालगुडी डेज़’ के स्वामी की याद दिला जाता है.

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निर्देशक के पिता भी थे किसान

एक बच्चे के नज़रिये से बनाई गयी ये फिल्म न सिर्फ दिल छू लेती है बल्कि गंभीर विषयों को भी बहुत कुशलता से हाइलाइट करती है. फिल्म के निर्देशक मंगेश हाड़वले की यह पहली फिल्म थी. मंगेश भी एक दिलचस्प व्यक्ति हैं. महाराष्ट्र के राजुरी गांव के रहने वाले मंगेश के पिता भी किसान ही थे. एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि टिंग्या की कहानी दरअसल उन्हीं के बचपन की कहानी है.

निर्देशक फिल्में बनाने के अलावा करते हैं किसानी 

मंगेश फिल्में बनाने के साथ-साथ किसानी भी करते हैं. उन्हें लगता है कि “किसानी से जीवन के प्रति एक नया नज़रिया और समझ विकसित होती है.“ स्कूली पढ़ाई खत्म करके मंगेश ने पुणे में थिएटर और रंगमंच पर अध्ययन किया. वहां उन्होने अपनी पहली फिल्म देखी और वीटोरिओ डी सिका की इटालियन फिल्म ‘द बाइसाइकल थीव्स’ ने उनकी ज़िंदगी बदल दी. उन्होने सोचा ‘अरे, ये तो मेरी कहानी है. मेरे पास भी तो एक बैल था जिसे पिताजी ने बेच दिया था तो मैंने आठ दिन खाना नहीं खाया था’

धीरे-धीरे उन्हें समझ आया कि थिएटर की दुनिया सीमित है, फिल्में उन्हें एक बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंचा सकती हैं. ‘टिंग्या’ की कहानी तो उनके पास थी ही. वे कहानी लेकर करीब 42 प्रोड्यूसरों के पास गए, सभी ने इंकार कर दिया. आखिरकार, रवि राय इस फिल्म को प्रोड्यूस करने के लिए राज़ी हो गए.

1200 बच्चोंका लिया गया था ऑडिशन

राजुरी से दस-बीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक गांव को फिल्म की लोकेशन के तौर पर चुना गया. अब समस्या थी टिंग्या के किरदार के लिए एक योग्य बाल कलाकार के चयन की. इस किरदार के लिए मंगेश ने करीब 1200 बच्चों का ऑडिशन लिया और फिर चुना शरद गोएकर को. चरवाहा परिवार के ठेठ ग्रामीण बच्चे शरद ने फिल्म क्या टेलिविजन की शक्ल तक नहीं देखी थी, लेकिन मंगेश हाड़वले को यही बच्चा ठीक लगा.

फिल्म ने एक चरवाहा परिवार के बच्चे की बदल दी ज़िंदगी

अभिनय के प्रशिक्षण के नाम पर शरद को सिर्फ यह कहा गया कि उसे एक बैल से दोस्ती करनी है, बस्स. चूंकि शरद सिर्फ बकरियां चराते थे तो उन्हें बैल से पहले तो डर लगा लेकिन अभिनेता सुनील देव (जो उनके पिता की भूमिका में थे) की मदद से बैल से परिचित होने में उन्हें मुश्किल नहीं हुई. आज शरद न सिर्फ फिल्में बनाते हैं बल्कि एक सफल कारोबार भी चला रहे हैं. ‘टिंग्या’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. इस फिल्म ने एक चरवाहा परिवार के बच्चे की ज़िंदगी भी बदल दी. 2008 में रिलीज़ हुई इस फिल्म को न सिर्फ ढेर सारे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी इसने अच्छी कमाई की. मंगेश हाड़वले एक सफल निर्देशक के रूप में स्थापित हुए और उन्होने हिन्दी में भी सफल सार्थक फिल्में बनाई हैं.

‘टिंग्या’ एक बैल और बच्चे के प्यार की कहानी

हाड़वले ने एक इंटरव्यू में बताया कि वे अब भी खेती करते हैं. शिवाजी की कहानियों और किसानी में आने वाली कठिनाइयों से ही उन्होने सीखा है कभी न हार मानने का जज़्बा. हालांकि ‘टिंग्या’ एक बैल और बच्चे के प्यार और किसान की असहायता की कहानी कहती है, लेकिन इसका अंत आशावादी है. मंगेश के व्यक्तित्व को देख-समझ कर ऐसा नहीं लगता कि वे किसी भी स्थिति में निराशावादी हो सकते हैं. यही बात उनकी फिल्म में भी झलकती है कि हालात कितने भी मुश्किल क्यों न हों, मनुष्य की जीवटता उनसे निकलने का रास्ता खोज ही लेती है और फिर परिस्थितियां बदलती भी तो हैं.

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