Maa Bhoomi : तेलंगाना किसान विद्रोह के इतिहास और बलिदान को दर्ज करती एक प्रभावशाली फिल्म

Maa Bhoomi : तेलंगाना किसान विद्रोह के इतिहास और बलिदान को दर्ज करती एक प्रभावशाली फिल्म

इस फिल्म से पहले निर्देशक गौतम घोष डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाते थे और उनकी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल चुकी थी. प्रोड्यूसर बी नरसिंह राव बहुत अरसे से तेलंगाना किसान विद्रोह पर फिल्म बनाना चाहते थे.

तेलंगाना किसान विद्रोह के इतिहास और बलिदान को दर्ज करती एक प्रभावपूर्ण तेलुगू फिल्मतेलंगाना किसान विद्रोह के इतिहास और बलिदान को दर्ज करती एक प्रभावपूर्ण तेलुगू फिल्म
प्रगत‍ि सक्सेना
  • Noida,
  • Aug 20, 2023,
  • Updated Aug 20, 2023, 11:09 AM IST

हमारा देश कई भाषाओं, संस्कृतियों और विविधताओं की एक संयुक्त विरासत पर गर्व करता रहा है. कई बार तो आश्चर्य होता है कि हम अपनी ही संस्कृति के कितने ही आयामों से अनजान हैं! हमारी फिल्में और इन फिल्मों का सृजन करने वाले लोग इसी विविधता में निहित अटूट एकता को प्रतिबिम्बित करते हैं. तेलुगू फिल्म ‘मा भूमि’ इसी बात का एक खूबसूरत उदाहरण है.

यह फिल्म न केवल आज़ादी से पहले तेलंगाना क्षेत्र के भूमिहीन किसानों द्वारा सशस्त्र विद्रोह के इतिहास को सटीक तौर पर दिखाती है, बल्कि इसके निर्माण में तमाम क्षेत्रों के लोगों का सक्रिय योगदान देश की विविधता में एकता को भी दर्शाता है.

निर्देशक की पहली फीचर फिल्म

1979 में रिलीज़ हुई ‘मा भूमि’ बंगाली निर्देशक गौतम घोष की पहली फीचर फिल्म थी. इसके निर्माता थे बी नरसिंह राव और जी रवीन्द्रनाथ. फिल्म की कहानी आधारित थी उर्दू लेखक कृष्ण चंदर के उपन्यास ‘जब जागे खेत’ पर और कृष्ण चंदर ने अपने दोस्त मखदूम मोईउद्दीन के अनुभवों और उनकी सुनाई गई कहानियों से प्रेरणा ली थी यह उपन्यास लिखने में तेलुगू, उर्दू, हिन्दी और बंगला, इन सभी पृष्ठभूमि से आए लोगों ने फिल्म ‘मा भूमि’ (यानी हमारी धरती) के निर्माण में सहयोग दिया. बाद में गौतम घोष ने अपने एक इंटरव्यू में कहा भी कि किसी भी फिल्म में भाषा से अधिक दृश्य-भाषा पर पकड़ होना ज़रूरी है. और ये फिल्म इस बात को साबित करती है.

कई साल तक की गई रिसर्च

इस फिल्म से पहले निर्देशक गौतम घोष डॉक्युमेंट्री फिल्में बनाते थे और उनकी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल चुकी थी. प्रोड्यूसर बी नरसिंह राव बहुत अरसे से तेलंगाना किसान विद्रोह पर फिल्म बनाना चाहते थे. लेकिन उन्हें कोई योग्य निर्देशक नहीं मिल रहा था. तब मृणाल सेन ने गौतम घोष का नाम सुझाया. ‘मा भूमि’ की खासियत ये है की इसे डॉक्यूमेंट्री शैली में फिल्माया गया है. इसके लिए निर्देशक ने काफी रिसर्च की. फिल्म की कहानी को ऐतिहासिक प्रामाणिकता देने के लिए हैदराबाद स्थित पुस्तकालय में पुराने दस्तावेज़ों को छाना गया. निर्देशक गौतम घोष ने पूरे तेलंगाना क्षेत्र का दौरा किया, उस वक्त के कुछ अनुभव लोगों से सुने गए और फिर तैयार हुई ‘मा भूमि’ की स्क्रिप्ट.

दिखाया किसानों का संघर्ष

फिल्म के किरदारों के लिए जब अभिनेता चुनने की बात आई तो निर्देशक ने मुख्य किरदारों के लिए थिएटर से जुड़े युवा अभिनेताओं को ही चुना. इनमें मुख्य थे. तेलंगाना शकुंतला और नायक रमईया के किरदार के लिए साई चांद का चयन. अन्य किरदारों के लिए गांव वालों और स्थानीय लोगों में से ही कुछ को चुना गया. अब बात करते हैं इस फिल्म की कहानी के बारे में. फिल्म की कहानी भी एक पेचीदा मुद्दे पर थी. अंग्रेजों के दौर में हैदराबाद निज़ाम की सत्ता के दौरान, और फिर आज़ादी पाने तक इस क्षेत्र के किसानों की दुर्दशा, उनका संघर्ष और विद्रोह, यह सभी दर्शाना था ताकि एक पूरा परिदृश्य उभर कर सामने आ सके. तो इसे एक व्यक्ति की ज़िंदगी के जरिए दिखाया गया.फिल्म की कहानी रमईया के इर्द-गिर्द घूमती है. रमईया एक भूमिहीन किसान का बेटा है. उसे बचपन से ही काम पर लगा दिया जाता है. ये ज़माना है हैदराबाद के निज़ाम का जिसके शासन में जमींदारों को ज़मीन के सारे हक दिए गए थे और बदले में निज़ाम उनसे कर वसूलता था. जमींदार के रजाकार(निज़ाम की सेना के लोग) किसानों से मनमाना बर्ताव करते. उन्हें हाड़-तोड़ मेहनत के बाद कुछ अनाज ही मेहनताने के तौर पर दिया जाता. उन पर तमाम तरह के अत्याचार किए जाते, स्त्रियों- बच्चों तक को न छोड़ा जाता.

किसानों पर होने वाले अत्याचार की दास्तां

रमईया इसी व्यवस्था में पलता-बढ़ता है. लेकिन जब उसकी प्रेमिका को भी जमींदार की हवस का शिकार होना पड़ता है तो वह उस गांव से भाग जाता है. छोटे-मोटे काम काम करने के बाद रमईया एक फैक्ट्री में काम करने लगता है, जहां उसकी मुलाक़ात एक यूनियन नेता से होती है, जो उसे पढ़ने के लिए प्रेरित करता है और मजदूरों के हकों के बारे में जागरूक करता है. फैक्ट्री में हड़ताल होने के बाद हालात ऐसे बन जाते हैं कि रमईया अपने गांव लौटता है. लेकिन अब वो एक जागरूक व्यक्ति है और रजाकारों द्वारा किसानों का नरसंहार देख कर वह भी हथियार उठा लेता है.

फिल्म से जुड़ी तस्वीर

आजाद भारत का भी जिक्र

अब किसान विद्रोह कर देते हैं . उनकी जीत भी होती है और रजाकारों को हरा कर वे ज़मीन पर अपना अधिकार स्थापित कर लेते हैं. इस बीच भारत आज़ाद होता है और आज़ाद भारत की सरकार हैदराबाद की रियासत के विलय के लिए सेना भेजती है. भारतीय सेना ‘ऑपरेशन पोलो’ के तहत हैदराबाद को भारत का अंग बना लेती है. लेकिन इस बीच, किसान जो ज़्यादातर अनपढ़ हैं, वे गेंहू में घुन की तरह पिस जाते हैं. उनका विद्रोह भी दबा दिया जाता है. जमींदार बड़ी चालाकी से भारत सरकार के समर्थन में चले जाते हैं और उन्हें उनकी ज़मीन वापिस मिल जाती है.

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इतिहास का अहम हिस्सा

इस पूरी कहानी में तथ्यों को निरपेक्ष रूप से पेश करने की कोशिश की गई है. इस अर्थ में यह फिल्म हमारे इतिहास के एक अभिन्न अंग को दर्शाता एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है. लेकिन फिर भी कहीं-कहीं संवादों में निर्देशक की किसानों, मजदूरों के प्रति सहानुभूति झलक जाती है, जो अपरिहार्य है, जैसे जेल में रमईया का दोस्त उससे कहता है- “जमींदार के लोगों ने मेरे सिर को लोहे की गरम छड़ी से दागते हुए कहा, ‘हम मॉस्को तक की सड़क बना रहे हैं!’ ये मॉस्को कहां है?”रमईया जवाब देता है- “मॉस्को वो जगह है, जहां गरीबों ने अपने हक की लड़ाई लड़ी और जीत गए! वहां अब गरीब राज करते हैं!” ज़ाहिर है, उसने अपने यूनियन नेता के प्रभाव में यह सब सीखा है. साई चांद ने, जो रमईया की भूमिका में थे, बाद में बताया कि इस फिल्म ने और इसके बनने की प्रक्रिया ने उनके जेहन पर अमिट छाप छोड़ी. एक जगह रमईया अपने पिता से कहता है- “अइय्या, लोगों की सेवा करने से बेहतर ज़िंदगी और क्या हो सकती है!” साई ने कहा कि इस संवाद ने हमेशा उन्हें प्रोत्साहित किया है.

फिल्म बनने में आईं थी कई दिक्कतें 

फिल्म के बनने में भी कई दिक्कतें आईं. पैसे की कमी एक बड़ी समस्या थी. आखिरी शेड्यूल को शूट करते करते प्रोड्यूसरों को अपनी संपत्ति तक गिरवी रखनी पड़ी. फिल्म के सारे गाने एक दिन में ही रिकॉर्ड किए गए. इनमें से एक लोक गीत, “पोड़ाला, पोड़ाला!” को निजामाबाद से लाया गया. दरअसल ये गीत निजामाबाद की एक जेल की दीवार पर लिखा हुआ मिला था, जो बाद में एक लोकप्रिय लोकगीत बन गया. दूसरा गीत “बंडेनाका, बंडीकट्टी!”, जिस फिल्म में तेलंगाना के मशहूर कवि गदर ने गाया है, दरअसल उनका लिखा हुआ गीत नहीं है, बल्कि इसे एक अन्य क्रांतिकारी कवि बंडी यादगिरी ने लिखा है.

फिल्म के कॉस्ट्यूम पर की गई थी लंबी रिसर्च 

फिल्म के कॉस्ट्यूम पर भी विस्तृत रिसर्च की गई थी. निर्देशक गौतम घोष की पत्नी नीलांजना घोष ने एक इंटरव्यू में बताया कि “ज़्यादातर कपड़े उन गांव वालों से ही उधार लिए गए थे जहां शूटिंग हो रही थी. “तमाम दिक्कतों को झेलते हुए आखिरकार जब मार्च 1980 में ये फिल्म रिलीज़ हुई और बॉक्स ऑफिस पर इसने धमाल मचा दिया. चूंकि ये तेलंगाना क्षेत्र के लोगों की संस्कृति और इतिहास के बहुत करीब थी, इसलिए दर्शकों ने फिल्म और इसके गानों को बहुत पसंद किया. ‘मा भूमि’ ने कई फिल्मफेयर पुरस्कार जीते और अनेक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया.

इस तरह एक फिल्म न सिर्फ इतिहास का एक दस्तावेज़ बनी बल्कि उन लाखों भूमिहीन किसानों की आवाज़ भी जो अपने हकों की लड़ाई में शहीद हो गए. आज यह फिल्म सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्मों में से एक मानी जाती है.

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