Cattle Infertility: देश में 40 फीसद दुधारू पशु बांझपन के शिकार, सालाना 1 अरब का झटका, जानिए क्या है असली वजह

Cattle Infertility: देश में 40 फीसद दुधारू पशु बांझपन के शिकार, सालाना 1 अरब का झटका, जानिए क्या है असली वजह

भारत में दुधारू पशुओं में बांझपन अब एक गंभीर महामारी का रूप ले चुका है, जिसकी चपेट में देश का लगभग 40% गोवंश है और इससे सालाना एक अरब रुपये से अधिक का भारी आर्थिक नुकसान हो रहा है. 1970 के दशक के बाद दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए किए गए अनियंत्रित संकर प्रजनन ने गायों में विदेशी खून तो बढ़ा दिया, लेकिन ये विदेशी नस्लें भारत के गर्म मौसम और वातावरण में पूरी तरह नहीं ढल सकीं. इस बांझपन का पशुपालकों की आमदनी पर सीधा असर पड़ रहा है और देश का नुकसान हो रहा है.

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जेपी स‍िंह
  • New Delhi ,
  • Dec 02, 2025,
  • Updated Dec 02, 2025, 1:07 PM IST

भारत में 1970 के दशक में पशुओं की नस्ल सुधारने का काम बहुत जोर-शोर से शुरू हुआ था. इसका मुख्य मकसद दूध का उत्पादन बढ़ाना था. साल 2000 आते-आते हमारे देश की गायों की नस्लों में बहुत बड़ा बदलाव देखने को मिला. लेकिन, इस दौड़ में हमसे एक बड़ी चूक यह हुई कि हमने अपनी शुद्ध देसी भारतीय नस्लों का काफी नुकसान कर दिया. क्रॉस ब्रीडिग को लाया तो सुधार के लिए गया था, लेकिन अनियंत्रित तरीके से विदेशी नस्ल के सांडों का उपयोग करने से गायों में विदेशी खून की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ गई. इसका नतीजा यह हुआ कि आज बांझपन दुधारू गायों की सबसे बड़ी समस्या बन गया है.

गाजियाबाद के जिला उप पशु चिकित्सा अधिकारी डॉ. हरबंश सिंह बताते हैं कि आज हालात ऐसे हैं कि कुल गोवंश का लगभग 30 से 40 फीसद हिस्सा बांझपन से जूझ रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ दूध न मिल पाने के कारण ही सालाना करीब एक अरब रुपये का नुकसान हो रहा है. इसमें अगर बांझपन के कारण न पैदा होने वाले बछड़े-बछियों के नुकसान को भी जोड़ लिया जाए, तो यह आंकड़ा और भी बड़ा हो जाएगा.

संकर नस्ल और बांझपन का क्या है कनेक्शन? 

डॉ. हरबंश सिंह ने बताया, इस समस्या की एक बड़ी वजह आनुवंशिक है. भारत में नस्ल सुधार के लिए फ्रीजियन, जर्सी और रेड-डेन जैसी विदेशी नस्लों के सांडों का सीमेन इस्तेमाल किया गया. ये नस्लें मूल रूप से ठंडे देशों की हैं, जहां का मौसम भारत से बिल्कुल अलग होता है. जब इन ठंडे देशों की नस्लों का खून हमारी गायों में बहुत ज्यादा बढ़ गया, तो उनसे पैदा होने वाली बछियां भारत की भीषण गर्मी को झेलने में सक्षम नहीं रहीं. डॉ. हरबंश सिंह इसे 'हीट स्ट्रेस' कहते हैं.

पिछले 30-40 सालों में हमारे पर्यावरण में भी काफी बदलाव आया है और गर्मी बढ़ी है. विदेशी खून की अधिकता वाली गायें इस बढ़ते तापमान और उमस को बर्दाश्त नहीं कर पातीं. इस गर्मी के कारण उनके शरीर में प्रजनन के लिए जरूरी हार्मोन का संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे उनका हीट साइकिल अनियमित हो जाता है और वे बांझपन का शिकार हो जाती हैं.

आखिर क्यों बांझ हो रहे देश के पशु 

बांझपन का दूसरा सबसे बड़ा कारण है पशुओं को सही पोषण न मिलना. भारत में ज्यादातर किसान अपनी गायों को खेतों में चराकर या बचा-खुचा खिलाकर पालने के आदी रहे हैं, क्योंकि देसी नस्लें कम में भी गुजारा कर लेती थीं. लेकिन संकर नस्ल की, यानी ज्यादा दूध देने वाली गायों की जरूरतें अलग होती हैं. अगर हम हाई क्वालिटी गाय से अच्छे दूध की उम्मीद करते हैं, तो उसे उसी स्तर का पोषण भी देना होगा.

देखने में आया है कि जिन गायों में 75 फीसदी से ज्यादा विदेशी खून है, वे तीसरी या चौथी बार ब्याने के बाद बांझपन की शिकार हो जाती हैं. इसका कारण यह है कि हम खेतों में अब देसी खाद की जगह रासायनिक खादों का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं. इससे मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी हो गई है. जब मिट्टी ही कमजोर होगी, तो उसमें उगने वाला हरा चारा, भूसा और अनाज भी कमजोर ही होगा. पशुओं को पेट भरने के लिए चारा तो मिल रहा है, लेकिन उनके शरीर को प्रजनन के लिए जो जरूरी विटामिंस और मिनरल्स चाहिए, वे उन्हें नहीं मिल पा रहे हैं, जिससे उनकी बच्चेदानी कमजोर हो रही है.

कहीं आप भी तो नहीं कर रहे ये गलती?

पहले के समय में पशुपालन का तरीका अलग था. गायें और सांड झुंड में साथ रहते थे, जिससे गाय के हीट में आने का पता सांड को प्राकृतिक रूप से चल जाता था और सही समय पर गाभिन हो जाती थी. आज के समय में हम कृत्रिम गर्भाधान (एआई ) पर निर्भर हैं. कई बार किसान को सही समय पर गाय के गर्मी में आने का पता नहीं चलता या फिर एआई करने का समय सही नहीं होता, जिससे गाय गाभिन नहीं ठहरती.

इसके अलावा, बदलते माहौल के हिसाब से क्रॉस-ब्रीड गायों का रखरखाव न कर पाना भी एक बड़ी वजह है. खराब क्वालिटी का सीमेन, एआई. करते समय सफाई न रखना, या ब्याने के बाद बच्चेदानी में इन्फेक्शन हो जाना आम बात हो गई है. संकर नस्ल की गायें देसी गायों के मुकाबले बीमारियों को जल्दी पकड़ती हैं और ज्यादा संवेदनशील होती हैं. इसके बावजूद किसान टीकाकरण और समय पर इलाज में उतनी रुचि नहीं दिखाते, जिससे बीमारियां बढ़ती हैं और अंततः गाय हमेशा के लिए बांझ हो जाती है.

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