India-US Trade: भारत की खेती पर अमेरिका की नजर, कैसे और कब तक बचेंगे किसान?

India-US Trade: भारत की खेती पर अमेरिका की नजर, कैसे और कब तक बचेंगे किसान?

अमेरिका हमेशा से इतने बड़े भारतीय कृषि बाज़ार में अपनी पैठ बनाना चाहता रहा है. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि भारत में कृषि उत्पादों के लिए बाजार पहुंच सुनिश्चित करना अमेरिकी विदेश नीति की एक प्रमुख इच्छा थी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया.

धान का मंडी भावधान का मंडी भाव
क‍िसान तक
  • नोएडा,
  • Oct 29, 2025,
  • Updated Oct 29, 2025, 5:16 PM IST

ऐसे समय में जब गेहूं और धान जैसी अनाज वाली फसलें अभी भी अच्छी स्थिति में हैं, लगभग सभी अन्य प्रमुख फसलों की हालत खराब होती दिख रही है. दालों, तिलहनों (सोयाबीन सहित), कपास और मक्का की कीमतों में भारी गिरावट आई है और इसी के कारण खतरे की घंटी इस बार बहुत जोर से बज रही है. हाल ही में वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने बर्लिन ग्लोबल डायलॉग में एक साहसिक बयान दिया था. उन्होंने कहा कि भारत "सिर पर बंदूक" रखकर समझौते नहीं करता.

अंतरराष्ट्रीय पटल पर एक कठिन समय पर कहे गए ये अतिशयोक्तिपूर्ण शब्द उन दिनों की याद दिलाते हैं जब कृषि मंत्री जगजीवन राम, रोम में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) मुख्यालय में एक बैठक से कथित तौर पर गुस्से में बाहर चले गए थे. तत्कालीन कृषि सचिव डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने मुझे बताया था कि जगजीवन राम ने एक वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारी से कहा था, "आप और आपकी हमारे यहां कृषि निर्यात को बढ़ावा देने की मंशा को धिक्कार है, भारत कभी भी अमेरिका से खाद्यान्न आयात नहीं करेगा." बता दें कि जगजीवन राम 1974 से 1977 तक देश के कृषि एवं सिंचाई मंत्री रहे.

भारतीय कृषि बाजार पर अमेरिका का हमेशा से नजर

अमेरिका हमेशा से इतने बड़े भारतीय कृषि बाज़ार में अपनी पैठ बनाना चाहता रहा है. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि भारत में कृषि उत्पादों के लिए बाजार पहुंच सुनिश्चित करना अमेरिकी विदेश नीति की एक प्रमुख इच्छा थी. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. हाल ही में, जब ट्रंप द्वारा टैरिफ पर आधिकारिक और मनमाने ढंग से की गई घोषणाएं, देशों को नई विश्व व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाने के लिए प्रेरित कर रही हैं, भारत ने अब तक अपने कृषि, डेयरी और मत्स्य पालन क्षेत्र को बचाने के लिए चल रही अमेरिका-भारत व्यापार वार्ता में बहादुरी से लड़ाई लड़ी है.

लेकिन मजबूत घरेलू लॉबी, जो हमेशा बहुराष्ट्रीय हितों के साथ खड़ी रही है, एक बार फिर बेचैन हो रही है, और वह भी आत्मनिर्भरता के नाम पर. लेकिन जब कपास, सोयाबीन, मक्का, डेयरी, सेब और अन्य गुठलीदार फलों के लिए द्वार खोलने के मामले में अमेरिका के साथ जिस रणनीतिक व्यापार समझौते को 'जीत' वाला बताया जा रहा है, उससे घरेलू वास्तविकताओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अमेरिका का अगला लक्ष्य जाहिर है चावल होगा, उसके बाद गेहूं होगा, जहां अमेरिका का वास्तविक हित निहित है.

आखिर क्या है आयात का संकट?

नीति आयोग ने विवादास्पद जेनेटिकली मोडिफाइड (जीएम) सेब, मक्का और सोयाबीन की एंट्री की मांग करते हुए एक नया शोध पत्र पेश किया है, वहीं अन्य मुख्यधारा के अर्थशास्त्री भी हैं, जो कपास के जीरो-ड्यूटी आयात के अनुरूप दूध और दूध उत्पादों के लिए बाजार को खोलना उचित मानते हैं. जबकि यह नहीं समझा जा रहा कि अमेरिका में लगभग 8,000 कपास उत्पादक हैं और औसतन 600 हेक्टेयर के खेत होने के बावजूद, उन्हें सालाना 1,00,000 डॉलर से ज़्यादा की सब्सिडी मिलती है. इससे अंतरराष्ट्रीय कीमतें गिरती हैं, जिसका खामियाजा विकासशील देशों के किसानों को भुगतना पड़ता है. दूसरी ओर, भारत में 98 लाख कपास उत्पादक हैं, जिनके पास औसतन 1 से 3 एकड़ ज़मीन है. सस्ते, सब्सिडी वाले आयात उनकी पहले से ही कमज़ोर आजीविका को और भी कमज़ोर कर देते हैं.

इस सूरत में अगर घरेलू कपास उद्योग हमारे किसानों के साथ खड़ा होता, तो यह सचमुच दोनों पक्षों के लिए फ़ायदेमंद स्थिति होती. कपास पर आयात शुल्क शून्य करके, भारत ने स्वेच्छा से 'अपने किसानों को भेड़ियों के सामने छोड़ दिया है'. लेकिन जब दालों की बात आती है, तो मांग-आपूर्ति का समीकरण काम नहीं करता. पिछले पांच सालों में, दालों का रकबा 307 लाख हेक्टेयर से घटकर 276 लाख हेक्टेयर रह गया है. फिर भी, भारी मांग को देखते हुए, खेत से ही कीमतों में तेज़ी नहीं आई है. दरअसल, मौजूदा कीमतें घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से लगभग 30 प्रतिशत कम हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि उत्पादन में कमी की भरपाई सस्ते आयात से की गई है, जो वास्तव में ज़रूरत से दोगुना है, और कई दालों के लिए शुल्क-मुक्त भी है. अकेले 2024-25 में 76 लाख टन दालों का आयात किया गया. न्यूज रिपोर्टों के अनुसार, पिछले पांच सालों में, 2020-21 में दालों के आयात पर 12,153 करोड़ रुपये के व्यय के मुकाबले, 2024-25 में आयात का मूल्य पहले ही 47,000 करोड़ रुपये को पार कर चुका है.

जीएम सोयाबीन आयात का मसला

खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के नाम पर जीएम सोया के आयात को उचित ठहराना पुनः एक गलत प्रयास है. मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के सोया उत्पादक क्षेत्र सुनिश्चित मूल्य की मांग कर रहे हैं, और पंचायत स्तर पर अनेक ट्रैक्टर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. सोयाबीन का प्रचलित बाजार मूल्य 5,338 रुपये प्रति क्विंटल के निर्धारित एमएसपी के मुकाबले 3,500 से 4,000 रुपये प्रति क्विंटल के बीच है. जबकि क्षेत्र और उत्पादकता एक सुनिश्चित मूल्य (और जलवायु बदलाव) की कमी के कारण खतरे में हैं.

संभावित जीएम सोयाबीन आयात की खबर का कड़ा विरोध हो रहा है. राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में जारी आदेश, जिसमें केंद्र द्वारा नियम बनाए जाने तक जीएम खाद्य पदार्थों के आयात और बिक्री पर रोक लगा दी गई है. ये फैसला एक और बाधा उत्पन्न करेगा. यह उस समय की याद दिलाता है जब अमेरिका ने जीएम सोयाबीन के आयात को खोलने के लिए दबाव डाला था. नई दिल्ली स्थित फोरम फॉर बायोटेक्नोलॉजी एंड फूड सिक्योरिटी के नेतृत्व में एक अभियान के तहत, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने अंततः भारतीय बंदरगाहों पर सोयाबीन के आगमन पर उसे तोड़ने का आह्वान किया था. अमेरिकी आपूर्तिकर्ताओं (वरिष्ठ यूएसडीए अधिकारियों द्वारा समर्थित) ने इसका विरोध किया, लेकिन भारत ने घरेलू जीएम नियामक तंत्र को दरकिनार करने से इनकार कर दिया. जीएम सोयाबीन के आयात के लिए भी अब यही दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है, यदि आयात अपरिहार्य हो जाए.

ये गलती करने से बचे भारत सरकार

इसी तरह, मक्का के मामले में घरेलू कीमतें पहले ही तेजी से गिर चुकी हैं, क्योंकि मीडिया में ऐसी खबरें आ रही हैं कि आयात शुल्क को मौजूदा 50 प्रतिशत से घटाकर 15-16 प्रतिशत किया जा सकता है. 2,400 रुपये प्रति क्विंटल के एमएसपी के मुकाबले, बाजार में कीमतें कुछ जगहों पर 1,100 से 1,200 रुपये प्रति क्विंटल तक गिर गई हैं. दूध के मामले में भी, भारत को कभी भी रणनीतिक व्यापार लाभ के साथ प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि अमेरिका में भी पिछले 15 सालों में 93 प्रतिशत छोटे डेयरी फार्मों ने अपने शटर गिरा दिए हैं. फ्रांस में, डेयरी फार्मों की आर्थिक व्यवहार्यता को बचाने के लिए दूध के लिए अपेक्षाकृत अधिक कीमत चुकाने के लिए एक मजबूत उपभोक्ता आंदोलन शुरू हो गया है. भारत को उन दिनों की ओर वापस नहीं जाने दिया जा सकता, जब देश का पेट भरने के लिए जहाज़ों से खाना आता था. भूख से मुक्ति सुनिश्चित करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है, चाहे इसके लिए कितनी भी क़ीमत चुकानी पड़े

यह विचार खाद्य एवं कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा ने 'द ट्रिब्यून' में छपे लेख में साझा किए.

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