Bitter Rice: धान की रोपाई करने वाली महिला किसानों का मार्मिक चित्रण करती इटालियन फिल्म

Bitter Rice: धान की रोपाई करने वाली महिला किसानों का मार्मिक चित्रण करती इटालियन फिल्म

उत्तरी इटली के इलाकों में धान की रोपाई साल में 40 दिन होती है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इन चालीस दिनों के लिए किसान श्रमिक महिलाएं धान रोपाई के लिए ट्रेन पकड़ कर खेतों तक जाती थीं और खेतों के आसपास के गांवों में सेना के लिए बने कैंपों में ही 40 दिनों तक रहा करती थीं.

धान की रोपाई करने वाली महिला किसानों का मार्मिक चित्रण करती इटालियन फिल्मधान की रोपाई करने वाली महिला किसानों का मार्मिक चित्रण करती इटालियन फिल्म
प्रगत‍ि सक्सेना
  • Noida,
  • Aug 27, 2023,
  • Updated Aug 27, 2023, 10:00 AM IST

पिछले दिनों राहुल गांधी ने जब कृषि श्रमिकों के साथ हरियाणा के एक खेत में धान की रोपाई की, तो सभी का ध्यान इस बात पर गया कि धान को रोपना कितना कठिन काम है. इसके लिए खास महिला श्रमिकों को चुना जाता है. माना जाता है कि वे अपने छोटे हाथों और अपेक्षाकृत छोटी कद-काठी के कारण धान की रोपाई में ज़्यादा कार्य कुशल होती हैं. एक आंकड़े के अनुसार पूरी दुनिया में धान की खेती में 50-90 प्रतिशत श्रम महिलाएं करती हैं. जाहिर है. सारे दिन तेज धूप और उमस में पानी में खड़े होकर धान रोपना कोई सरल काम नहीं. फिर ये महिलाएं घर का कामकाज भी संभालती हैं. शायद ये कठिन काम महिलाओं से इसलिए भी करवाया जाता है क्योंकि उनका शोषण करना एक पितृसत्तात्मक समाज में अपेक्षाकृत रूप से सरल होता है.

आज धान रोपाई के बारे में हम बात कर रहे हैं. एक इतालवी फिल्म के संदर्भ में. 1950 में आई थी गिज़ेपे डी सांतेस की फिल्म, ‘रिज़ो अमारो’ (यानी अंग्रेज़ी में ‘बिटर राइस’ और हिन्दी में ‘कड़वा चावल’). धान रोपाई में कार्यरत महिला किसानों पर केन्द्रित शायद यह दुनिया की अकेली फीचर फिल्म है.

इटली में 40 दिन होती है धान की रोपाई 

उत्तरी इटली के इलाकों में धान की रोपाई साल में 40 दिन होती है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इन चालीस दिनों के लिए किसान श्रमिक महिलाएं धान रोपाई के लिए ट्रेन पकड़ कर खेतों तक जाती थीं और खेतों के आसपास के गांवों में सेना के लिए बने कैंपों में ही 40 दिनों तक रहा करती थीं. उनके काम करने की स्थितियां, गरीबी और शोषण को दर्शाती फिल्म है ‘बिटर राइस’. फिल्म को रोचक बनाने के लिए निर्देशक ने बड़ी कुशलता से महिला किसानों की पृष्ठभूमि में एक क्राइम थ्रिलर की कहानी फिल्मायी है. निर्देशक गिजेपे डी सांतेस दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के इटालियन निर्देशकों की खेप का एक अहम हिस्सा रहे. इटली में फिल्मों के इतिहास की बात करें तो पहली इटालियन फिल्म बनाई थी. वीटोरिओ केलचिना ने 1896 में इसके बाद इटालियन सिनेमा कई राजनीतिक उतार चढ़ावों से प्रभावित हुआ, लेकिन इस देश के सिनेमा ने दुनिया के सिनेमा को प्रभावित किया.

फिल्म ने दुनिया में छोड़ी अमिट छाप

फ्यूचरिस्ट सिनेमा ने रूसी और जर्मन सिनेमा को प्रभावित किया तो इटली के नवयथार्थवादी (निओरियलिस्ट) सिनेमा ने दुनिया भर के सिनेमा पर अमिट छाप छोड़ी है. आज के ज़्यादातर भारतीय फिल्म निर्देशक भी इतालवी नवयथार्थवादी निर्देशक वीटोरियो डी सिका की फिल्म ‘द बाइसाइकल थीव्स’ को अपनी पसंदीदा फिल्मों मे से एक मानते हैं. इटालियन नवयथार्थवादी सिनेमा को ही आगे ले जाने वाले फिल्म निर्देशक थे फ़ेदेरिको फेलिनी और गिजेपे डी सांतेस. डी सांतेस ने नव यथार्थवादी सिनेमा की तकनीक इस्तेमाल करते हुए, कामगार किसान महिलाओं के लॉन्ग शॉट्स लिए, मोंताज और प्रतीकात्मक विजुअल्स का इस्तेमाल किया लेकिन साथ ही एक क्राइम थ्रिलर को अपनी फिल्म का विषय बनाया. उल्लेखनीय बात ये कि ग्लैमर और सेक्सुएलिटी का इस्तेमाल के माध्यम से महिलाओं के शोषण को पुरजोर तरीके से दर्शाया.

फिल्म में महिला किसानों की दिखाई गई दिक्कतें 

अब हम आते हैं फिल्म की कहानी पर. फिल्म की शुरुआत होती है एक रेडियो रिपोर्टर की एंकरिंग से जो बता रहा है महिला किसानों की दिक्कतों के बारे में. अगले दृश्य में हम देखते हैं कि धान की रोपाई के लिए महिलाएं ट्रेनों में भर कर जा रही हैं, जिनमें फ्रांचेस्का भी शामिल है, जिसने अपने प्रेमी वाल्टर के कहने पर किसी होटल से एक महंगा हार चुराया है. चूंकि पुलिस वाल्टर के पीछे पड़ी है, इसलिए वाल्टर फ़्रांचेस्का से कहता है कि वह इन किसानों के साथ चली जाए. वह बाद में उसे ढूंढ निकालेगा. फ़्रांचेस्का इन महिला किसानों के साथ सेना के लिए बनाए गए अस्थायी कैंपों में रहने लगती है. वहां उसका सामना होता है सिल्वाना से.

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प्रवासी किसानों के खिलाफ नौजवान किसान

सिल्वाना एक नौजवान किसान है और उन प्रवासी किसानों के खिलाफ है, जो बिना किसी कांट्रैक्ट के काम करने आ जाती हैं. पहले तो उसकी फ़्रांचेस्का से नोंक-झोंक होती है, लेकिन फिर वही फ़्रांचेस्का की मदद करती है. खेत मालिक और यूनियन के नेता इन प्रवासी किसानों को काम पर रखने के लिए राजी हो जाते हैं. सिल्वाना का दोस्त है मार्को नाम का एक सैनिक. इधर वाल्टर भी फ़्रांचेस्का को ढूंढते हुए आ जाता है. वाल्टर को सिल्वाना के प्रति आकर्षित होता देख फ़्रांचेस्का दुखी होती है. वाल्टर न सिर्फ वो कीमती हार हथियाना चाहता है बल्कि सिल्वाना की मदद से वह चावल की एक पूरी फसल को चुरा लेना चाहता है. अंत में सिल्वाना उसकी मदद नहीं करती और उसे रोकने की कश्मकश में मारी जाती है.

महिला किसानों की गरीबी जीवंत चित्रण

फिल्म में सेना के कैंपों में रहने वाली महिला किसानों की गरीबी और ज़िंदगी का जीवंत चित्रण है. तमाम दिक्कतों में रहने वाली इन महिलाओं को काम के दौरान बात करने की आज़ादी नहीं, तो वे गाना गाते हुए अपने दुखड़े एक-दूसरे से सांझा करती हैं, खेतों के मालिकान के प्रति अपने गुस्से को भी इन्हीं गीतों के माध्यम से ज़ाहिर करती हैं. रोपाई के बाद जो चावल उन्हें मेहनताने के तौर पर मिलेगा, उसे वो किसी कीमत पर नहीं छोडना चाहतीं और इसी कमरतोड़ मेहनत के चलते खेत में ही एक युवा लड़की का गर्भपात हो जाता है. फिल्म में बारिश का फिल्मांकन बहुत सुंदर है. इन मेहनतकश औरतों के बीच के रिश्ते भी असरदार तरीके से फिल्माए गए हैं. खासकर फ़्रांचेस्का और सिल्वाना के बीच का आकर्षण और तनाव.

फिल्म यूरोप में हुई ज़बरदस्त हिट 

यह फिल्म यूरोप और अमेरिका में ज़बरदस्त कमर्शियल हिट साबित हुई. लेकिन कुछ आलोचकों ने सिल्वाना के किरदार में बहुत सशक्त रूप से मौजूद यौनिकता की आलोचना भी की. लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि यह यौनिकता और ग्लैमर न सिर्फ पूंजीवादी सोच का प्रतीक है, बल्कि महिला किसानों की बेबसी और अपने बोझिल हालात से परे जाने की लालसा को भी बखूबी ज़ाहिर करती है. कुछेक दृश्यों में बारिश, खेत और औरतें एकाकार होती प्रतीत होती हैं. महज एक ऐसे ‘संसाधन’ के रूप में जिसका भरपूर दोहन पुरुष करना चाहता है.

आखिरी दृश्य बहुत मार्मिक है. ये किसान महिलाएं रोपाई के बाद अपना-अपना मेहनताना, चावल का एक-एक बोरा लेकर जा रही हैं और उसमें से एक मुट्ठी सिल्वाना की कब्र पर डालती जाती हैं. अपने खून-पसीने से कमाया गया यह चावल ही सिल्वाना के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है.

फिल्म को ऑस्कर के लिए किया गया नामित 

इस फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखा था छह दिग्गज लेखकों ने इसकी खूबसूरती यह है कि बगैर किसी ज़ाहिर संवाद के, ‘बिटर राईस’ बहुत कुछ कह जाती है. फिल्म में बूगी वूगी डांस का भी सुंदर इस्तेमाल किया गया है. इस फिल्म को 1950 में ऑस्कर के लिए नामित किया गया था. लेकिन यह कोई ऑस्कर जीत नहीं पाई. बहरहाल, धान रोपाई करने वाली महिला किसानों के बीच एक अनकहा रिश्ता, उनकी कमरतोड़ मेहनत और गरीबी, उनका शोषण और उनकी आकांक्षाएं, इन सभी को दर्शाती यह फिल्म एक यादगार प्रभाव छोड़ जाती है.

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