
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के मुसहरी प्रखंड में स्थित छपरा मेघ गांव सिर्फ एक साधारण-सा गांव नहीं, बल्कि आस्था, परंपरा और रहस्यमयी मान्यताओं से भरा एक अनोखा स्थान है. यहां के लोग मछली खाते तो हैं, लेकिन अपने ही गांव के तालाब की मछलियों को छूना भी पाप मानते हैं. यह परंपरा कोई नई नहीं, बल्कि सदियों पुरानी आस्था पर टिकी हुई है. ग्रामीण बताते हैं कि गांव के प्राचीन तालाब को ‘शिवगंगा’ और ‘दूधिया पोखर’ कहा जाता है. इसकी शुरुआत रामजानकी मठ और बाबा दूधनाथ मंदिर की स्थापना के समय से जुड़ी है.
मान्यता है कि लगभग हजार वर्ष पहले इस तालाब की खुदाई के दौरान एक पत्थर मिला, जिसे काटते ही उसमें से दूध निकलने लगा. उसी रात मठ के पुजारी के सपने में भगवान शंकर प्रकट हुए और स्वयं को दूधेश्वरनाथ का स्वरूप बताते हुए उसी स्थान पर स्थापना की इच्छा जताई. उसी दिन से यह स्थान पवित्र मान लिया गया.
इसके बाद से ग्रामीण तालाब की मछलियों को दैवीय स्वरूप मानते हैं. किसी भी तरह से इन मछलियों को नुकसान पहुंचाना गांव के लिए अशुभ माना जाता है. स्थानीय निवासी कन्हैया लाल सिंह बताते हैं कि हमारे पूर्वजों से यह विश्वास चला आ रहा है कि इन मछलियों की रक्षा करना हमारा धर्म है. अगर कोई इनके शिकार का प्रयास करेगा, तो उसके जीवन में विपत्ति आ सकती है.
स्थानीय रहवासी अमित कुमार ने बताया एक बार मठ के महंत को सपने में आदेश हुआ कि इस स्थान पर खुदाई की जाए. दूसरी बार खुदाई के बाद वही दूधिया पत्थर मिला और तब से तालाब को दैवीय मान्यता मिल गई. इसीलिए यहां की मछलियों का शिकार वर्जित है. गांव में कंगाली आने का डर बताया जाता है.
आज भी शहर और आसपास के सैकड़ों लोग इस तालाब पर आते हैं और मछलियों को दाना, आटा और मूढ़ी खिलाते हैं. लोगों का विश्वास है कि ऐसा करने से दरिद्रता दूर होती है और मनोकामनाएं पूरी होती हैं. गांव के युवक गौतम कुमार बताते हैं, “बचपन से सुनते आए हैं कि इन मछलियों को मारना नहीं चाहिए. इनकी रक्षा करना ही हमारे गांव की परंपरा और हमारा धर्म है.”
सांझ ढलते ही तालाब का शांत पानी और मछलियों की हलचल इस विश्वास को और मजबूत कर देती है, जैसे कोई अनदेखी शक्ति स्वयं इस पवित्र परंपरा की रक्षा कर रही हो. छपरा मेघ का यह तालाब आज भी एक रहस्य, एक आस्था और एक अनोखी सांस्कृतिक विरासत की मिसाल बना हुआ है.