क्या आपने खेती-बाड़ी में काम आने वाली आंकुरी के बारे में सुना है? नहीं तो पढ़िए ये खबर

क्या आपने खेती-बाड़ी में काम आने वाली आंकुरी के बारे में सुना है? नहीं तो पढ़िए ये खबर

लकड़ी की बनी आंकुरी एक ऐसी वस्तु भी है जिसका नाम क्षेत्र के हिसाब से बदल जाता है, लेकिन उपयोग वही रहता है. इससे खेतों में कांटे हटाने, फसल समेटने, तूड़ी निकालने, मिट्टी जमा करने जैसे कई काम किए जाते हैं. 

खेती के छोटे-मोटे काम में काफी मददगार होती है झेली. फोटो- माधव शर्माखेती के छोटे-मोटे काम में काफी मददगार होती है झेली. फोटो- माधव शर्मा
माधव शर्मा
  • Jaipur,
  • Mar 04, 2023,
  • Updated Mar 04, 2023, 3:24 PM IST

क्या आप जानते हैं कि खेती में सबसे अधिक काम क्या वस्तु आती है? आपके कई जवाब हो सकते हैं, लेकिन लकड़ी की बनी एक ऐसी वस्तु भी है जिसका नाम क्षेत्र के हिसाब से बदल जाता है, लेकिन उसका उपयोग वही रहता है. यह वस्तु है झेली. इससे खेतों में कांटे हटाने, फसल समेटने, तूड़ी निकालने, मिट्टी जमा करने जैसे कई काम किए जाते हैं. झेली को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है. पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर में इसे सोखनी और छिंगी कहते हैं. अजमेर, भीलवाड़ा और जयपुर में इसे झेली कहा जाता है. वहीं, पूर्वी राजस्थान में झरिया और आंकुरी कहते हैं. इतना ही नहीं, एक ही जिले के अलग-अलग गांवों में इसका नाम बदल जाता है.

झेली में जितने सींग जुड़ेंगे नाम भी बदलता जाता है

जैसलमेर के मुख्य बाजार में रावताराम सुथार की दुकान है. ये 30 साल से सोखनी बनाने का काम कर रहे हैं. रावताराम कहते हैं, “मैं 30 साल से यह काम कर रहा हूं. छिंगी या सोखनी के कई नाम हैं. जैसलमेर में ही किसान अलग-अलग नाम से खरीदने के लिए अलग-अलग नाम लेते हैं. इसीलिए इसमें जितने सींग जोड़ते जाएंगे इसका नाम भी बदलता जाएगा.” रावताराम जोड़ते हैं, “उदाहरण के लिए दो सींग की सोखनी को दोछिंगी, तीन सींग को तिछिंगी, चारछिंगी नाम से खरीदा जाता है. सोखनी 10 सींगों तक भी बनाई जाती है.”

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कहां से आता है कच्चा माल?

सोखनी बनाने में कई एक्सपर्ट्स की जरूरत होती है. साथ ही कच्चा माल भी देशभर से आता है. इसका हैंडल यानी सबसे बड़ा डंडा बेंगलुरू से सफेदा की लकड़ी का आता है. राजस्थान में कई जगह ये मध्यप्रदेश से भी आता है. इसके बाद सिरे पर सींग जैसे पैनी दो-तीन फीट लंबी लकड़ी के डंडे चाहिए होते हैं. जो जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा में पूर्वी राजस्थान के धौलपुर, करौली जिलों से सप्लाई किए जाते हैं. पश्चिमी राजस्थान में यह माल पहाड़ी राज्यों से भी आता है.

कई वर्गों को रोजगार देता है आंकुरी का धंधा

आंकुरी, झेली या सोखनी बनाने के पीछे हमारी समाज के कई वर्गों का योगदान होता है. इसीलिए एक आंकुरी बनाने से कई लोगों को रोजगार मिलता है. रावताराम बताते हैं, “सोखनी बनाने में लकड़ी से संबंधित काम सुथार यानी मैं करता हूं. फिर इसके सीगों को पैना करने, काटने का काम बढ़ई समाज का व्यक्ति करेगा. इसके बाद इसके हैंडल और सीगों को जोड़ने के लिए चमड़े का इस्तेमाल किया जाता है. इसीलिए चमड़े से बांधने का काम मेघवाल समाज के लोग करते हैं.” 

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रावताराम जोड़ते हैं, “अब लोहे की सोखनी भी आने लगी हैं. इसीलिए इससे लुहार समुदाय के लोगों को भी रोजगार मिलने लगा है. सोखनी की कीमत इसके आगे लगे नुकीले सींगों पर निर्भर करती है. दो सींग की सोखनी 300-350 रुपये तक होती है. इसी तरह आठछिंगी की कीमत करीब एक हजार होती है.”

पशु मेलों में बड़ी संख्या में आते हैं झेली विक्रेता

राजस्थान में हर साल करीब 250 पशु मेले लगते हैं. इनमें सैंकड़ों की संख्या में झेली बेचने वाले लोग आते हैं. अजमेर जिले के प्रसिद्ध पुष्कर पशु मेले में हर साल 20-30 की संख्या में झेली विक्रेता आते हैं. नागौर जिले की डेगाना तहसील के बुटाटी धाम गांव में झेली काफी बड़ी संख्या में बनाई जाती हैं. इस गांव के प्रत्येक घर से कोई ना कोई सदस्य झेली बनाने के काम से जुड़ा हुआ है.

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