भारत हर साल बंपर अनाज उत्पादन के दावे कर रहा है. कुछ फसलों जैसे चावल, गेहूं के मामले में यह दावे सही भी हैं. लेकिन इस दौड़ में हमारी मिट्टी की हालत खराब होती जा रही है. नाइट्रोजन की अंधाधुंध खपत और पोटाश की भारी कमी ने संतुलन बिगाड़ दिया है. इसकी वजह से फसलों में जिंक, आयरन जैसे पोषक तत्वों की कमी हो रही है, जो सीधे कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या बढ़ा रहा है. बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास सही से नहीं हो रहा.
अखबार इंडियन एक्सप्रेस में आए एक आर्टिकल में नामी विशेषज्ञों के हवाले से लिखा है कि अब समय आ गया है जब हम सिर्फ पेट भरने वाली खेती से आगे बढ़कर पोषण देने वाली खेती की ओर कदम बढ़ाएं. विशेषज्ञों के अनुसार साइंस बेस्ड उर्वरक प्रबंधन ही भारत की मिट्टी और भविष्य दोनों को बचा सकता है. साल 2024 में सॉइल हेल्थ कार्ड योजना के तहत टेस्ट किए गए 88 लाख से ज्यादा सैंपल्स में 5 प्रतिशत से भी कम में उच्च या पर्याप्त नाइट्रोजन (N) है. सिर्फ 40 फीसदी में पर्याप्त फॉस्फेट (P), 32 प्रतिशत में पर्याप्त पोटाश (K) और सिर्फ 20 प्रतिशत में पर्याप्त सॉइल कार्बनिक कार्बन (SOC) है. विशेषज्ञों का कहना है कि ये आंकड़ें देखने के बाद साफ है कि फसल और मानव पोषण दोनों में सुधार के लिए, भारत में एक बड़े बदलाव की जरूरत है.
SOC मिट्टी के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों को परिभाषित करने वाला एक महत्वपूर्ण स्टैंडर्ड है. ये गुण इसकी धारण क्षमता और पोषक तत्व उपयोग दक्षता को निर्धारित करते हैं. इस बात पर भी अभी बहस जारी है कि कितना SOC पर्याप्त माना जाता है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सॉइल सांइस (IISC) के अनुसार, 0.50-0.75 प्रतिशत की सीमा में SOC पर्याप्त है. लेकिन विश्व खाद्य पुरस्कार विजेता, रतन लाल, जिन्होंने अपने पूरे करियर में मृदा स्वास्थ्य पर काम किया है, का सुझाव है कि मिट्टी में कार्बन की मात्रा कम से कम 1.5 से 2 प्रतिशत होनी चाहिए. जबकि भारत की मिट्टी में सल्फर के साथ-साथ आयरन, जिंक और बोरॉन जैसे माइक्रो न्यूट्रियंट्स की भी कमी है. ये कमियां मध्यम से लेकर गंभीर तक होती हैं. विशेषज्ञों की मानें तो यह कहना ज्यादा नहीं होगा कि भारतीय मिट्टी के कई हिस्सों को तुरंत आईसीयू में ले जाने की जरूरत है ताकि उसकी हेल्थ सामान्य हो सके और स्थायी रूप से पौष्टिक भोजन का उत्पादन कर हो सके.
देश के कुछ हिस्सों में नाइट्रोजन (N) का सबसे ज्यादा उपयोग होता है जबकि फॉस्फोरस (P) और पोटैशियम (K) का कम उपयोग होता है. उदाहरण के लिए, पंजाब में, नाइट्रोजन का उपयोग प्रस्तावित मात्रा में 61 फीसदी ज्यादा है जबकि पोटैशियम का प्रयोग 89 प्रतिशत कम है और फॉस्फोरस का प्रयोग 8 प्रतिशत कम है. जबकि तेलंगाना में भी यह असंतुलन देखने को मिलता है - यहां नाइट्रोजन का उपयोग 54 प्रतिशत ज्यादा है लेकिन K का उपयोग 82 प्रतिशत कम है और P का उपयोग 13 प्रतिशत कम है. वहीं देश के दूसरे राज्यों की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है.
N, P और K का अत्यधिक असंतुलित उपयोग और सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपेक्षा से कृषि उत्पादकता कम हो जाती है. देश भर में, उर्वरक-से-अनाज प्रतिक्रिया अनुपात 1970 के दशक के 1:10 से घटकर 2015 में मात्र 1:2.7 रह गया है. मृदा स्वास्थ्य को बहाल करने और फसल व मानव पोषण दोनों में सुधार लाने के लिए, भारत को एक आदर्श बदलाव की जरूरत है. उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग से अनुकूलित और साइंस बेस्ड सॉइल न्यूट्रिशियन मैनेजमेंट के जरिये से ही मिट्टी को उपजाऊ बनाया जा सकता है.
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