दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण के लिए जो कारण जिम्मेदार हैं उनमें पराली जलाने की घटनाएं भी एक बड़े विलेन के तौर पर चिन्हित की गई हैं. हालांकि, इस साल पराली जलाने की घटनाओं में पिछले वर्षों के मुकाबले भारी कमी आई है, लेकिन केस आने पूरी तरह से बंद नहीं हुए हैं. जबकि पराली जलाने की वजह से खेत की उर्वरा शक्ति पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है. कितना बड़ा नुकसान होता है उसका अंदाजा अगर आपको नहीं है तो हम बता देते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के डिप्टी डायरेक्टर जनरल डॉ. एसके चौधरी का कहना है कि एक एकड़ में पराली जलाने से 12.5 किलो फास्फोरस, 20 किलो नाइट्रोजन और 30 किलो पोटैशियम का नुकसान हो जाता है. ये तीनों खेती के लिए जरूरी है और पराली जलाने से इन्हीं का नुकसान हो जाता है.
नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी में मंगलवार से शुरू हुए ग्लोबल स्वायल कॉन्फ्रेंस में डॉ. चौधरी ने कहा कि पराली से जुड़ी समस्या का समाधान मिट्टी से ही आएगा. हमें यह देखना होगा कि यह किस तरह मिट्टी में जल्दी से जल्दी घुल जाए. पराली का समाधान न तो सिर्फ बायो डिकंपोजर से होगा, न मशीनों से होगा, न उसके इंडस्ट्रियल इस्तेमाल से होगा और न सिर्फ किसानों पर कार्रवाई करने से होगा. इसका समाधान इन सब चीजों को एक साथ लेकर होगा. बायो डिकंपोजर का असर होने में कम से कम 28 दिन का वक्त लगता है, इसलिए सिर्फ इसके भरोसे पराली मैनेजमेंट नहीं हो सकता.
इसे भी पढ़ें: राजनीतिक 'हथियार' बने सोयाबीन, कपास और प्याज के दाम...महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में क्या करेंगे किसान?
अब बात करते हैं स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन की, जो खेती की उर्वरता के लिए बेहद जरूरी है. इंडो-गंगेटिक प्लेन, जिसमें खासतौर पर धान और गेहूं की फसल ली जाती है उसमें स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन (SOC) 1960 के दशक के मुकाबले अब काफी कम हो गया है. इसे ठीक करना बड़ी चुनौती है. दरअसल, एसओसी सारे पोषक तत्वों का सोर्स होता है. इसकी कमी से पौधे का विकास रुक जाता है और उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता धीमी हो जाती है. इसके घटने से खेत में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है. जिससे उत्पादन कम होने लगता है. उसे पूरा करने के लिए किसान रासायनिक उर्वरकों का और इस्तेमाल करते हैं जिससे खेती का खर्च बढ़ता है. परिणाम यह होता है कि एसओसी और घट जाता है.
डॉ. चौधरी ने बताया कि एसओसी कम होने का मतलब यह है कि मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की संख्या पर्याप्त मात्रा से कम हो गई है. साठ के दशक में यह 1.0 फीसदी तक हुआ करता था, जबकि अब यह घटकर 0.3 फीसदी ही रह गई है. खाद और पानी के अंधाधुंध इस्तेमाल से ऐसा हुआ है. सवाल ये है कि आखिर किसान क्या करें? खाद न डाले तो गेहूं और चावल कैसे पैदा होगा और हमारी खाद्य सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी?
आईसीएआर के डायरेक्टर जनरल डॉ. हिमांशु पाठक का कहना है कि 1 टन चावल पैदा करने के लिए 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 3.5 किलो फास्फोरस और 20 किलो पोटैशियम की जरूरत पड़ती है. इतना तो किसानों को इस्तेमाल करना ही होता है. स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन ज्यादा तापमान होने से भी घटता है. ज्यादा तापमान होने पर ऑर्गेनिक कार्बन खेत से कार्बन डाइऑक्साइड गैस बनकर उड़ जाता है.
डॉ. चौधरी ने बताया कि भारत में कुछ साल पहले तक धरती में जिंक की 50 फीसदी कमी थी, लेकिन अब इसमें सुधार हुआ है और इसकी कमी सिर्फ 40 फीसदी रह गई है. बोरान की 22 फीसदी कमी है. सल्फर भी कम है. हालांकि, अब पहले के मुकाबले रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल संतुलित हुआ है. लेकिन, सूक्ष्म पोषक तत्वों का भी इस्तेमाल करने की जरूरत है. उर्वरकों का बैलेंस इस्तेमाल करना होगा. हमें यह ध्यान रखना होगा कि हम किस तरह की मिटी आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ेंगे. नेचर पॉजिटिव एग्रीकल्चर करना होगा. पिछले पांच साल से 16 राज्यों के 20 स्थानों पर नेचुरल फार्मिंग पर रिसर्च चल रहा है. कुछ साल में हम इस मामले में पूरी दुनिया को दिशा दिखाएंगे.
डॉ. पाठक ने बताया कि तीन दिन तक चलने वाली ग्लोबल स्वायल कॉन्फ्रेंस में देश भर के करीब 2000 वैज्ञानिक शिरकत कर रहे हैं. मिट्टी का रोल सिर्फ फूड प्रोडक्शन तक सीमित नहीं है. अगर मिट्टी की सेहत ठीक है तो प्लांट की सेहत ठीक रहेगी, अगर प्लांट हेल्थ ठीक है तो एनिमल हेल्थ ठीक रहेगी और एनिमल हेल्थ ठीक रहेगी तभी इंसानों की सेहत भी ठीक रहेगी. यह सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. इसलिए अब समय मिट्टी की केयर करने का है.
इसे भी पढ़ें:कॉटन उत्पादन में भारी गिरावट, क्या है बड़ी वजह...आपकी जेब पर भी पड़ेगा इसका असर