रबी सीजन की एक प्रमुख फसल है, जो कम लागत और कम पानी में भी अच्छा मुनाफा दे सकती है. बाजार में अलसी के औषधीय गुणों के कारण इसकी मांग लगातार बढ़ रही है, जिसे देखते हुए इसकी जैविक खेती किसानों के लिए एक सुनहरा अवसर हो सकती है. अलसी की खेती मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर करती है, इसलिए यह उन क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से फायदेमंद है जहां सिंचाई की सुविधा सीमित है. घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी मांग बनी रहती है. इस फसल की एक खास बात यह भी है कि जानवर इसे नहीं खाते, जिससे फसल की चराई से होने वाले नुकसान का खतरा नहीं रहता. कम लागत, सीमित सिंचाई की आवश्यकता और बाजार में निरंतर मांग के कारण अलसी की खेती किसानों के लिए एक फायदे का सौदा साबित हो सकती है.
अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए किसानों को अपने क्षेत्र की जलवायु और मिट्टी के अनुसार उन्नत प्रजातियों का चयन करना चाहिए. विभिन्न राज्यों के लिए अलसी की कुछ प्रमुख उन्नत किस्में इस प्रकार हैं- उत्तर प्रदेश के लिए नीलम, हीरा, मुक्ता, गरिमा, लक्ष्मी 27, टी 397, शिखा और पद्मिनी; मध्य प्रदेश के लिए जे. एल. एस. (जे) 1, जवाहर 17, जवाहर 552, टी. 397, श्वेता, शुभ्रा, गौरव और मुक्ता; राजस्थान के लिए टी. 397, हिमालिनी, चंबल, श्वेता, शुभ्रा और गौरव; बिहार के लिए बहार टी. 397, मुक्ता, श्वेता, शुभ्रा और गौरव; और पंजाब-हरियाणा के लिए एल.सी. 54, एल.सी. 185, के. 2, हिमालिनी, श्वेता और शुभ्रा शामिल हैं.
अलसी की बुआई मुख्य रूप से दो तरीकों से की जाती है - छिटकवां विधि और पंक्तियों में बुआई. धान की खड़ी फसल में छिटकवां विधि से बुआई को मध्य प्रदेश में 'उतेरा' और बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'पेरा' विधि कहा जाता है. अलसी की बुआई का सबसे सही समय अक्टूबर से 15 नवंबर के बीच होता है. बीज की मात्रा फसल के प्रकार पर निर्भर करती है. सामान्य फसल के लिए प्रति एकड़ 6 से 8 किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है, जबकि बड़े बीज वाली प्रजातियों के लिए यह मात्रा 10 से 12 किलोग्राम होती है. वहीं, मिश्रित फसल के लिए 3 से 4 किलोग्राम प्रति एकड़ बीज पर्याप्त होता है. बीज को हमेशा 3-4 सेंटीमीटर की गहराई पर बोना चाहिए.
फसल में पोषक तत्वों की मात्रा का निर्धारण मिट्टी की जांच करवाकर करना सबसे अच्छा होता है. एक सामान्य सिफारिश के अनुसार, प्रति एकड़ उर्वरक की मात्रा इस प्रकार है. नाइट्रोजन 32 किलोग्राम, फॉस्फोरस 16 किलोग्राम और पोटाश 8 किलोग्राम प्रति एकड़ जरूरत होती है. फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय दें, जबकि नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुआई के अलसी की खेती वर्षा पर निर्भर है, लेकिन अगर सर्दियों में वर्षा न हो तो दो सिंचाइयां बहुत लाभदायक होती है. पहली सिंचाई पौधे में 4-6 पत्तियां आने पर और दूसरी फूल आते समय करनी चाहिए. खरपतवार नियंत्रण के लिए बुआई के 30-35 दिन बाद पहली निराई-गुड़ाई करनी चाहिए. समय और शेष आधी पहली सिंचाई पर देने से बेहतर परिणाम मिलते हैं.
अलसी एक ऐसी बहुउपयोगी फसल है जिसका कोई भी हिस्सा बेकार नहीं जाता. हर भाग का उपयोग है. इसके बीजों से तेल निकाला जाता है, जिसका प्रयोग खाने, दीपक जलाने, पेंट, स्याही और साबुन बनाने में होता है. बीजों को सीधे भोजन में भी इस्तेमाल किया जाता है और इनसे औषधियां भी बनती हैं. तेल निकालने के बाद बची खली पशुओं के लिए एक पौष्टिक आहार है और इसे खाद के रूप में भी उपयोग करते हैं.