बिजली के बोर्ड पर लगे एक स्विच को ऑन करते ही आज खेतों में पानी की मोटी धार फूट पड़ती है. तकनीक ऐसी कि स्प्रिं कलर से पौधे की एक-एक पत्ती तक पानी पहुंच जाता है. हाईटेक सिस्टरम भी इस तरह का कि जितने पानी की जरूरत है उतना ही खेत की नालियों तक जाएगा. लेकिन बात बीते 50 साल की करें तो खेतों में पानी लगाने का सफर हमेशा ऐसा नहीं रहा है. पानी की एक-एक बूंद खेतों में पहुंचाने के लिए किसान को पसीना बहाना पड़ता था. हाथ और पैर से जुगाड़ वाली मशीनें चलानी पड़ती थी.
तब कहीं जाकर खेतों में पानी पहुंचता था. पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना अपने वाटर एंड सॉइल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट में ऐसे ही एक सफर को दिखाने की कोशिश करती है. मौजूदा और पुरानी मशीनों के कुछ मॉडल मैदान में लगाए गए हैं. इन्हीं मॉडल पर छात्रों को भारत की सिंचाई व्य वस्था के बारे में पढ़ाया भी जाता है.
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वाटर एंड सॉइल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के डॉ. जेपी सिंह ने किसान तक को बताया कि खेतों की सिंचाई के लिए फुट पम्प का इस्ते माल आज से करीब 50 से 60 साल पहले होता था. यह पूरी तरह से मैन्यूनली आपरेटेट उपकरण था. तब से लेकर आज तक इस उपकरण में कोई बदलाव नहीं आया है. कहने का मतलब है कि इसे कभी मॉडीफाई करने की कोई कोशिश नहीं की गई है. आज भी प्रदर्शन के तौर पर इसे रखा गया है और पैरों का इस्ते माल करने पर यह काम करता है. इससे पानी भी निकलता है.
इसके बाद ही हैडपम्प आया था. यह आज भी चलन में है, लेकिन खेतों की सिंचाई इससे अब नहीं होती है. पीने के पानी और घरेलू इस्तेमाल में आने वाले पानी को निकालने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है. गांव ही नहीं शहरों में भी इनका खूब इस्तेमाल होता है.
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डॉ. जेपी सिंह ने बताया कि जब तालाब चलन में थे तो उस वक्त बड़ी परेशानी यह थी कि उसका पानी खेत तक कैसे पहुंचाया जाए. क्योंकि बारिश का पानी तालाब में तो जमा हो जाता था, लेकिन असल परेशानी थी उस पानी को खेत तक लाने की. इसी दौरान प्रोपेलर पम्प सामने आया. सेना की मोर्टर गन जैसा प्रोपेलर पम्प एक मोटर की मदद से चलता था. इसका पाइप भी मोर्टर की तरह से सामने की ओर सीधा लगाया जाता था. और मोटर चालू होने पर यह पानी को सामने की ओर पूरे प्रेशर से फेंकता था.
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