Mints farming: नई तकनीक से करें मेंथा की खेती तो मिलेगा अधिक फायदा, जानें क्या है इसका खास तरीका

Mints farming: नई तकनीक से करें मेंथा की खेती तो मिलेगा अधिक फायदा, जानें क्या है इसका खास तरीका

इस वैश्वीकरण के दौर में देश के किसान परंपरागत फसलों से हटकर बाजार की मांग के अनुसार कुछ नया करके अपनी खेती में अपना लाभ का दायरा बढ़ा सकते हैं. पिछले सालों से देखने में आ रहा है कि किसान मेंथा की खेती के प्रति जागरूक हो रहे हैं. स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मेंथा के तेल और अन्य घटकों की भारी मांग है.

मेंथा की खेती  की उन्नत तकनीकमेंथा की खेती की उन्नत तकनीक
जेपी स‍िंह
  • New Delhi,
  • Feb 08, 2024,
  • Updated Feb 08, 2024, 5:08 PM IST

खेती और किसान दोनों में तेज़ बदलाव का दौर जारी है. इस वैश्वीकरण के दौर में देश के किसान परंपरागत फसलों से हटकर बाजार की मांग के अनुसार कुछ नया करके अपनी खेती में लाभ का दायरा बढ़ा सकते हैं. पिछले सालों से देखने में आ रहा है कि किसान मेंथा की खेती के प्रति जागरूक हो रहे हैं. स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मेंथा के तेल और अन्य घटकों की भारी मांग है. आज हमारा देश मेंथा उत्पादन में सबसे आगे है और इससे प्रति वर्ष लगभग 800 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है. बहुत से किसान इस नई फ़सल से जुड़ कर अपने लाभ का दायरा बढ़ा रहे हैं. इस वजह से मेंथा का एरिया तेजी बढ़ रहा है. मेंथा की खेती में यूपी का ख़ास स्थान है. अब बिहार में अब इसकी खेती कर किसान बेहतर लाभ उठा रहे हैं. मेंथा से ताजा तेल 1600 से 1800 रुपये और एक साल पुराना तेल 2800 से 3000 रुपये प्रति लीटर के रेट से बिकता है. मेंथा की खेती लगभग सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है. लेकिन बलुई दोमट और चिकनी दोमट मिट्टी बेहतर होती है.

मेंथा की खेती का तरीका

मेंथा की खेती जाड़ा खत्म होने के समय सबसे बेहतर होती है. उत्तर भारत में जनवरी से लेकर मार्च के महीने में बुवाई की जाती है. मेंथा की खेती दो तरह से की जाती है. पहला, सीधे मेंथा के सकर्स की रोपाई और दूसरा, मेथा की नर्सरी तैयार कर मेंथा की रोपाई की जाती है. अगर मेंथा के खेत में सीधे सकर्स (जड़) लगाते हैं, तो इसके एक एक एकड़ के खेत में कुल एक से डेढ़ क्विंटल सकर्स लग जाती हैं जबकि अगर नर्सरी तैयार कर मेंथा की रोपाई करते हैं, तो 40 से 50 क्विंटल सकर्स की जरूरत पड़ती है. 

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इन किस्मों का करें चुनाव

मैदानी इलाकों में जापानी मेंथा की खेती की जाती है. इसके तहत सीआईएमएपी एमएएस-1 77, शिवालिक, हिमालय, काल्का, गोमती, डमरू, संभव, सक्षम, कोसी, समय देर से रोपाई के लिए बेहतर होती है, विलायती मेंथे में कुकरैल, प्रांजल, तुषार हैट किस्में शामिल हैं.

नर्सरी तकनीक से खेती

इस विधि में सबसे पहले पांच फीट चौड़ी 10 फीट लंबी क्यारियां बनाते हैं और प्रत्येक क्यारी में 50 किलो सड़ी गोबर की खाद मिलाकर भुरभुरी बनाई जाती है. इन तैयार क्यारियों में पानी भर दिया जाता है. नर्सरी तैयार करने के पहले मेंथा की जड़ लेकर, उसको छोटा-छोटा काट लें. फिर उसे जूट के बोरे में दो-तीन दिनों के लिए रख दें, ताकि जड़ें विकसित हो जाएं. इसके बाद सकर्स को नर्सरी में बिखेर दें. मेंथा की नर्सरी 20 से 25 दिन में तैयार हो जाती है.

नई तकनीक से करें रोपाई

अभी तक किसान समतल क्यारियों में मेंथा की रोपाई करते थे. लेकिन सीमैप के मुताबिक अगर किसान नई तकनीक के तहत मेंथा की रोपाई मेड़ों पर करते हैं तो इस तकनीक से फायदा होगा. इसमें आलू की तरह खेतों में मेड़ बनाते हैं. मेड़ की दूरी एक दूसरे से 40 से 50 सेंटीमीटर और पौध से पौध की दूरी 25 सेंटीमीटर होती है. इससे मेंथा की उपज भी बेहतर मिलती है और तेल भी अधिक निकलता है.

जानें कब और कितना दें खाद

मेंथा की अच्छी उपज के लिए 15 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद, 60 किलो नाइट्रोजन, 24 किलो फास्फोरस, 16 किलो पोटाश और सल्फर 8  किलो प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करना चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस, पोटाश और सल्फर की पूरी मात्रा रोपाई से पहले कूंड़ों में प्रयोग करनी चाहिए. शेष नाइट्रोजन को तीन बराबर भागों में बांटकर रोपाई के लगभग 45 दिनों, 75 दिनों और पहली कटाई के 20 दिनों बाद देना चाहिए. अधिक उत्पादन के लिए मेंथा को जल्दी जल्दी और हल्की सिंचाई की जरूरत होती है, ताकि खेत में हमेशा नमी बनी रहे. मार्च में 10 से 15 दिन के अंतराल पर और अप्रैल से जून में 6 से 8 दिनों के अंतराल पर हल्की सिंचाई से किया जाना चाहिए.

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कब करें मेंथा की कटाई?

मेंथा फसल की कटाई प्रायः दो बार की जाती है. पहली कटाई बुवाई के लगभग 100-120 दिनों बाद और दूसरी कटाई, पहली कटाई के लगभग 70-80 दिनों बाद करनी चाहिए. पौधों की कटाई जमीन की सतह से 4-5 सें.मी. ऊंचाई से करनी चाहिए. कटाई के बाद पौधों को 2 से 3 घंटे तक खुली धूप में छोड़ देना चाहिए. इसके बाद फसल को छाया में हल्का सुखाकर आसवन विधि द्वारा तेल निकाल लिया जाता है. इससे प्रति एकड़ लगभग 100-125 क्विंटल शाक मिलती जिससे 50-60 किलो तेल प्राप्त होता होता है.

 

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