
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पराली जलाने की घटनाओं पर नियंत्रण के लिए सख्त कदम उठाए हैं. सीएम योगी के सख्त निर्देशों और सतत मॉनिटरिंग के परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश में पराली जलाने की घटनाओं में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई है. राज्य सरकार के सक्रिय प्रयासों से अब किसान फसल अवशेष प्रबंधन के वैकल्पिक उपायों की ओर अग्रसर हो रहे हैं.
आंकड़ों से पता चलता है कि मथुरा, पीलीभीत, सहारनपुर, बाराबंकी, लखीमपुर खीरी, कौशांबी, एटा, हरदोई, जालौन, फतेहपुर, महराजगंज, कानपुर देहात, झांसी, मैनपुरी, बहराइच, इटावा, गोरखपुर, अलीगढ़, उन्नाव और सीतापुर जैसे कुल 20 जनपदों में पराली जलाने की घटनाओं में स्पष्ट कमी दर्ज की गई है. इसमें भी एटा, कौशांबी, सीतापुर और उन्नाव जैसे जनपदों में सबसे कम पराली जलाने की घटनाएं हुई हैं. यह स्थिति बताती है कि मुख्यमंत्री योगी के निर्देशों का जमीनी असर दिखाई देने लगा है.
सीएम योगी ने सभी जिलाधिकारियों और संबंधित विभागों को निर्देशित किया था कि पराली जलाने की घटनाओं की सेटेलाइट से निगरानी की जाए. साथ ही किसानों को वैकल्पिक उपायों के प्रति जागरूक किया जाए. वहीं प्रशासन द्वारा किसानों को फसल अवशेष प्रबंधन मशीनों, कंपोस्टिंग तकनीक और बायो-डीकंपोजर के उपयोग के लिए प्रेरित किया जा रहा है.
दरअसल, राज्य सरकार ने पराली जलाने वालों के खिलाफ पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति शुल्क तय किया है. इसके अनुसार, दो एकड़ से कम क्षेत्र पर ₹2,500, दो से पांच एकड़ तक ₹5,000, पांच एकड़ से अधिक पर ₹15,000 क्षतिपूर्ति शुल्क लगेगा. साथ ही प्रत्येक 50 से 100 किसानों पर एक नोडल अधिकारी की नियुक्ति की जा रही है, जो अपने क्षेत्र में पराली जलाने की घटनाओं की रोकथाम सुनिश्चित करेंगे.
इसी क्रम में चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय द्वारा संचालित कृषि विज्ञान केंद्र, दलीपनगर के मृदा वैज्ञानिक डॉ खलील खान ने किसानों से अपील कि है कि वे अपने खेतों में धान व अन्य खरीफ फसलों की हार्वेस्टर से कटाई उपरांत फसल अवशेषों को खेत में न जलाएं. क्योंकि फसलों के अवशेषों को जलाने में उनके जड़, तना, पत्तियां आदि के पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं.
डॉक्टर खलील ने यह भी बताया कि फसल अवशेषों को जलाने से मृदा के तापमान में वृद्धि हो जाती है. जिसके कारण मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक दशा पर विपरीत असर पड़ता है. वहीं मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं. जिसके कारण मृदा में उपस्थित जीवांश अच्छी प्रकार से सड़ नहीं पाते और पौधे पोषक तत्व प्राप्त नहीं कर पाते हैं. जिसके परिणाम स्वरूप अगली फसल के उत्पादन में गिरावट आती है. इसके अतिरिक्त वातावरण के साथ-साथ पशुओं के चारे के लिए भी व्यवस्था करने के लिए समस्या आती है.
उन्होंने किसान को सलाह दी है कि फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन कर कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट खाद बनाकर खेतों मैं प्रयोग करें. इससे खेत की उर्वरा शक्ति के साथ ही भूमि में लाभदायक जीवाणु की संख्या में भी वृद्धि होगी. तथा मृदा के भौतिक एवं रासायनिक संरचना में सुधार होगा. जिससे भूमि की जल धारण क्षमता एवं वायु संचार में वृद्धि होती है.
फसल अवशेषों के प्रबंधन करने से खरपतवार कम होते हैं तथा जल वाष्प उत्सर्जन भी कम होता है. वहीं सिंचाई जल की उपयोगिता बढ़ती है. इसके अतिरिक्त यदि भूमि का पीएच मान अधिक है तो फसल अवशेष प्रबंधन से मृदा का पीएच मान सामान्य किया जा सकता है.
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