Sheep Farming in Summer गुजरात, यूपी, हरियाणा में जहां भी राजस्थान से सटा बार्डर है वहां आजकल एक चीज आपको बहुत दिखाई देगी. और वो है भेड़-बकरी और कंकरेज नस्ल की मोटे और बड़े-बड़े सींग वाली गाय. साथ ही हाथ में डंडा लेकर उन्हें हांकते हुए चल रहे होंगे सफेद लिबास पर लाल रंग की पगड़ी पहने चरवाहे. पशुओं के इस झुंड को रेवड़ कहा जाता है. हैं तो ये चरवाहे लेकिन इन्हें घुमंतू और खानाबदोश पशुपालक के नाम से भी बुलाया जाता है. बेशक इन्हें खानाबदोश कहा जाता है, लेकिन इनका अपना एक समुदाय है जिसे देवासी के नाम से जाना जाता है.
ये समुदाय पशु चराने का काम करता है. साल के सात-आठ महीने ये अपने घर, गावं और शहर से बाहर रहकर पशुओं को चराते हैं. सभी का अपना शहर छोड़ने का अलग-अलग वक्त होता है. सब एक ही वक्त पर नहीं निकलते हैं. हालांकि इनके निकलने की शुरुआत फरवरी के आखिर और मार्च से हो जाती है. ये सिलसिला जून तक चलता रहता है. गाय के चरवाहें पहले निकल जाते हैं. भेड़ और बकरियों के चरवाहे सबसे आखिर में निकलते हैं. खेत में बचे वेस्ट को खिलाने तक चरवाहें गांवों में ही रुके रहते हैं.
पाली, राजस्थान से भेड़ लेकर हरियाणा के रेवाड़ी में पहुंचे चरवाहे किशन की मानें तो 400 से 500 भेड़ों के झुंड को एक रेवड़ कहा जाता है. फरवरी-मार्च के दौरान रेवड़ लेकर चरवाहे गुजरात में नर्मदा, यूपी में आगरा और हरियाणा में रेवाड़ी से करनाल तक चले जाते हैं. सितम्बर तक इसी तरह से भेड़ लेकर घूमते रहते हैं. इस दौरान माल ढोने और भेड़ों के बच्चों को ढोने के लिए गधे भी साथ रखते हैं. किशन ने बताया कि अगर एक परिवार में तीन भाइयों का एक-एक अलग रेवड़ है तो तीनों दूसरे शहर के लिए साथ ही निकलते हैं. ऐसे में तीन भाइयों में से दो भाई के परिवार रेवड़ के साथ जाएंगे और एक परिवार गांव में घर पर ही रह जाएगा. ये लोग अपने रेवड़ लेकर 500 से 600 किमी के दायरे में ही घूमते हैं. ऐसे में हर 200 किमी के बाद एक परिवार गांव चला जाता है और गांव वाला परिवार रेवड़ में शामिल हो जाता है.
किशन का कहना है कि समाज में इज्जत दिलाने में भेड़ों की संख्या अहम रोल निभाती है. जिसके पास जितनी ज्यादा भेड़ होती हैं समाज में उसकी उतनी ही मान-प्रतिष्ठा होती है. भेड़ों के रेवड़ लेकर एक शहर से दूसरे शहर घूमने वाले इन चरवाहों की एक महीने की कमाई लाखों में होती है. भेड़ के दूध, ऊन से और बड़ी भेड़ें बेचकर ये कारोबार करते हैं. चरवाहों के पास खेरी नस्ल की भेड़ होती हैं. ये ऊन के लिए कम और मीट के लिए ज्यादा पसंद की जाती हैं. दिनभर चलने की वजह से भेड़ों का वजन ज्यादा नहीं बढ़ता है, इसलिए भेड़ के दाम भी कम ही मिलते हैं.
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