काजू की खेती के जरिए बदल रही आंध्र प्रदेश के आदिवासी परिवारों की तकदीर, कर रहे बंपर कमाई

काजू की खेती के जरिए बदल रही आंध्र प्रदेश के आदिवासी परिवारों की तकदीर, कर रहे बंपर कमाई

काजू के बागानों में पूरी तरह से जैविक खेती की जाती है. आदिवासी इन बागानों में रासायनिक खाद और उर्रवरक का इस्तेमाल नहीं करते हैं. उनकी फसल बिक्री में बिचौलियों का कोई रोल नहीं होता है. वह फसल को तौलने के लिए भी खुद की वजन मशीन तैयार करते हैं. 

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काजू की खेती के जरिए बदल रही आंध्र प्रदेश के आदिवासी परिवारों की तकदीर, कर रहे बंपर कमाईकाजु की खेती (सांकेतिक तस्वीर)

आंध्र प्रदेश में काजू की खेती के लिए आदिवासी परिवारों की तकदीर बदल रही है. यहां के आदिवासी परिवार काजू की खेती से अच्छी कमाई कर रहे हैं.  यहां के चार गांवों के लगभग 94 आदिवासी परिवारों ने 110 एकड़ में काजू की खेती की है.काजू की सामूहिक खेती के जरिए इन आदिवासी परिवारों ने सामूहिक रूप से 76,46,960 रुपये कमाए हैं. काजू की सामूहिक खेती के जरिए सफलता की यह कहानी अनाकापल्ली जिले के रविकविथम मंडल के कल्याणपुलोवा गांव और आस पास के गांवों की है. यहां तक पहुंचने के लिए और इस उपलब्धि को हासिल करने में इस गांव को काफी संघर्ष करना पड़ा है. 

क्योंकि एक वक्त ऐसा भी था जब यह गांव कर्ज के बोझ तले दबा हुआ था. गांव में रहनेवाले आदिवासी परिवारों की हालत गुलामों जैसी थी. पर इसके बाद गांव वालो अजय कुमार के नेतृ्त्व में आगे बढ़ने का संकल्प लिया और खुद की तकदीर बदलने का फैसला किया. अजय कुमार में गांव के लोगों को जागरूक किया. उन्हें उनके अधिकारों के बारे में बताया साथ ही उन्हें खेती के जरिए बेहतर कमाई करने का रास्ता बताया. इसके बाद से ही गांव में सुधार की शुरुआत हुई और आज यहां के 94 आदिवासी परिवारों ने काजू की खेती करके एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की है. 

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शुरू हुआ ऋण मुक्ति आंदोलन

दक्कन क्रोनिकल की एक रिपोर्ट के अनुसार गांव में सबसे पहले लोगों को जागरूक करने के बाद जून 2023 में यहां पर ऋण मुक्ति आंदोलन शुरू हुआ. 15 मई 2024 तक आते आते काजू की पेड़ों आदिवासियों की संपत्ति बन गए. चार गांवों में फैले 110 एकड़ के काजू के खेत फिर से आदिवासियों के पास आ गए. इस तरह से आदिवासी परिवारों को ऋण से मुक्ति मिल गई. इस बागानों को फिर से सुचारु रूप से संचालित करने के लिए , बागान पर निवेश और अन्य खर्चं को कम करने के लिए उन्होंने सहयालु की पारंपरिक प्रथा को अपनाया. 

काजू की करते हैं जैविक खेती

इन काजू के बागानों में पूरी तरह से जैविक खेती की जाती है. आदिवासी इन बागानों में रासायनिक खाद और उर्रवरक का इस्तेमाल नहीं करते हैं. एक पेड़ जितना लेता है वह उतना ही देता. वो इसी सिद्धांत का पालन करते हुए खेती करते हैं. काजू की खेती में वो आत्मनिर्भरता का प्रदर्शन करते हुए खुद से फसल की भी बिक्री करते हैं.उनकी फसल बिक्री में बिचौलियों का कोई रोल नहीं होता है. वह फसल को तौलने के लिए भी खुद की वजन मशीन तैयार करते हैं. 

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काजू सीधे प्रसंस्करण कंपनियों को बेचे जाते हैं. 16 अप्रैल से 15 मई 2024 तक कंपनी को 92 बैग काजू उपलब्ध कराये गये. 80 किलो प्रति बोरी के हिसाब से 72,160 किलो काजू 76,46,960 रुपये में बिका. 94 आदिवासी परिवारों ने 100 रुपये की सदस्यता लेकर और 1,000 रुपये 'गिरिसिरी रयथु वुटपट्टीदारुलु' संगठन के साथ साझा करके 1,03,400 रुपये जमा किए. आदिवासी किसानों ने इसे संगठन के माध्यम से चलाने का निर्णय लिया है. 

 

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