किसान आंदोलन से पंजाब की राजनीतिक पर पड़ा बहुत बड़ा असर. (सांकेतिक फोटो)किसान आंदोलन ने पंजाब की मुख्यधारा की राजनीति को प्रभावित किया है. किसान आंदोलन 2.0 के चलते बीजेपी और शिरोमणि अकाली के बीच संभावित गठबंधन पर ब्रेक लग लगया है. कहा जा रहा है कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को नए सिरे से किसान आंदोलन का सामना करना पड़ रहा है. दरअसल, पंजाब के किसानों ने ही साल 2020 में सबसे पहले किसान आंदोलन की शुरुआत की थी. तब किसानों ने केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर करीब एक साल तक धरना- प्रदर्शन दिया था.
किसान आंदोलन 1.0, जिसने 2020-21 के दौरान राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली को हिलाकर रख दिया था. इस आंदोलन को आर्थिक सुधार एजेंडे के खिलाफ भारत का पहला और सबसे लंबा संघर्ष कहा जा सकता है, जिसमें 700 से अधिक किसानों की जान चली गई. वहीं, केंद्र सरकार के आश्वासन के बाद किसानों ने धरना- प्रदर्शन को वापस ले लिया था. लेकिन सरकार ने आश्वासन देने के 2 साल बाद भी किसानों की मांगे अभी तक नहीं मानी है. ऐसे में किसानों ने फिर से आंदोलन शुरू कर दिया, जिसे किसान आंदोलन 2.0 नाम दिया गया है. पंजाब के किसान ट्रैक्टर-ट्रॉलियों के साथ दिल्ली के लिए निकल गए हैं. लेकिन उन्हें शंभू बॉर्डर पर ही रोक दिया गया है. इस आंदोलन को संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) ने शुरू किया है.
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इस बार जगजीत सिंह डल्लेवाल और सरवन सिंह पंढेर के नेतृत्व वाली केवल दो प्रमुख किसान यूनियनों के रूप में पहचान की राजनीति इसका नेतृत्व कर रहे हैं. इस आंदोलन में ताकत और तीव्रता दोनों का अभाव है, क्योंकि अधिकांश किसान यूनियनों ने खुद को इससे अलग कर लिया है और एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं. बकलबीर सिंह राजेवाल, राकेश टिकैत, गुरनाम सिंह चादुनी और जोगिंदर सिंह उगराहां जैसे बड़े नेताओं ने किसानों के साथ एकजुटता व्यक्त करने के लिए अलग-अलग विरोध प्रदर्शन की घोषणा की है, लेकिन दिल्ली चलो मार्च में शामिल होने से कतरा रहे हैं, जिसे हरियाणा पुलिस ने दो बार रोक दिया है.
दिलचस्प बात यह है कि किसान आंदोलन 1.0 को छात्रों, कर्मचारियों, राजनेताओं, वामपंथी और दक्षिणपंथी कार्यकर्ताओं के अलावा गायकों और फिल्म निर्माताओं से लेकर समाज के लगभग सभी वर्गों का समर्थन मिला था. लेकिन नए सिरे से शुरू हुए किसान आंदोलन को किसान यूनियनों का प्रत्यक्ष समर्थन भी नहीं मिल रहा है.
पंजाब ने 2022 में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान और उसके बाद किसान आंदोलन के दुष्प्रभावों का प्रयोग करना शुरू कर दिया. किसान आंदोलन को बढ़ावा देने के बावजूद, सत्तारूढ़ कांग्रेस का आकार छोटा हो गया और वह 2017 में 38.64 प्रतिशत वोट के मुकाबले केवल 23.1 प्रतिशत वोट ही हासिल कर पाई. सबसे बुरी मार शिरोमणि अकाली दल को पड़ी, जिसने विवादास्पद कृषि कानूनों के मुद्दे पर भाजपा से 24 साल पुराना नाता तोड़ लिया था. पार्टी का वोटशेयर जो 2017 में 30.6% था, 2022 में घटकर 18.38 प्रतिशत हो गया. AAP ने सभी घरेलू उपभोक्ताओं को मुफ्त बिजली के अलावा किसानों को एमएसपी सहित कई वादे किए और 42.01 प्रतिशत वोट हासिल किए.
विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा के खिलाफ गुस्सा साफ तौर पर नजर आया था, जब उसे गांवों में किसानों के विरोध का सामना करना पड़ा था. कैप्टन अमरिन्दर सिंह के नेतृत्व वाली पंजाब लोक कांग्रेस के साथ साझेदारी के बावजूद भाजपा केवल दो सीटें ही जीत सकी. कैप्टन अपनी सीट भी नहीं जीत सके थे.
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2020 में कांग्रेस सरकार के नक्शेकदम पर चलते हुए भगवंत मान के नेतृत्व वाली AAP सरकार किसान यूनियनों को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. जहां किसानों को नई दिल्ली की ओर मार्च करने की अनुमति दी गई, वहीं पंजाब सरकार ने भी हरियाणा पुलिस की कार्रवाई पर आपत्ति जताई है. भगवंत मान ने केंद्र सरकार से किसानों की मांगें मानने को भी कहा है. अकाली दल ने भाजपा की भावनाओं को नजरअंदाज किया, गठबंधन को फिर से बनाने की योजना को रोका.
शिरोमणि अकाली दल, जो बसपा के गठबंधन तोड़ने के बाद खुद को फिर से मजबूत करने में लगा हुआ था, उसको किसान यूनियनों द्वारा केंद्र सरकार के खिलाफ अपना आंदोलन फिर से शुरू करने के बाद एक और झटका लगा है. ऐसी अटकलें थीं कि बीजेपी और अकाली दल लोकसभा चुनाव के लिए दोबारा गठबंधन करने के मूड में हैं. SAD ने 2020 में विवादास्पद, अब निरस्त किए गए कृषि कानूनों के मुद्दे पर भाजपा के साथ अपना 24 साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया था. इसने 2021 में बसपा के साथ गठबंधन किया था. गठबंधन पर अकाली दल चुप है. पार्टी के करीबी सूत्रों का कहना है कि हाल ही में कोर कमेटी की बैठक के दौरान नेताओं ने किसानों की मांगें पूरी होने तक भाजपा के साथ जनदीकी नहीं बढ़ाने का फैसला किया.
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