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क्या एमएसपी गारंटी कानून संभव भी है, कहीं सिर्फ राजनीति का जरिया तो नहीं बन गया है किसान आंदोलन?

क्या एमएसपी गारंटी कानून संभव भी है, कहीं सिर्फ राजनीति का जरिया तो नहीं बन गया है किसान आंदोलन?

एमएसपी गारंटी कानून की मांग को लेकर किसान राष्‍ट्रीय राजधानी नई दिल्‍ली की ओर मार्च कर रहे हैं. कुछ किसान समूह सार्वभौमिक एमएसपी के लिए एक कानून की भी मांग कर रहे हैं. किसान जो खेती करता है कि उसकी हर फसल को केंद्र में सरकार द्वारा एमएसपी पर खरीद के लिए खुला होना चाहिए.

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एमएसपी को लेकर किसान फिर सड़कों पर एमएसपी को लेकर किसान फिर सड़कों पर

एमएसपी गारंटी कानून की मांग को लेकर किसान राष्‍ट्रीय राजधानी नई दिल्‍ली की ओर मार्च कर रहे हैं. कुछ किसान समूह सार्वभौमिक एमएसपी के लिए एक कानून की भी मांग कर रहे हैं. इसका मतलब है कि किसान जो खेती करता है कि उसकी हर फसल को केंद्र में सरकार द्वारा एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर खरीद के लिए खुला होना चाहिए. ऐसे में एक सवाल यह भी उठता है कि क्‍या सरकार की तरफ से किसानों के लिए एमएसपी गारंटी कानून बनाया जाना संभव भी है. 

क्‍या कहते हैं आंकड़े 

तीन आंकड़े ही इस पूरी कहानी को खारिज कर सकते हैं.  एक, कृषि उपज का कुल मूल्य रु. 40 लाख करोड़ होना तो वित्‍तीय वर्ष 2020 में तय किया गया था. इसमें डेयरी, खेती, बागवानी, पशुधन और एमएसपी फसलों के उत्पाद शामिल हैं. दूसरा कुल कृषि उपज का बाजार मूल्य रु. 10 लाख करोड़ का होना. इनमें 24 फसलें शामिल हैं जो एमएसपी के दायरे में शामिल हैं. पिछले दो-तीन सालों से लोगों को यह भरोसा दिलाया गया है कि एमएसपी भारत के कृषि कार्यों का अभिन्न अंग है. हालांकि, यह सच्चाई से बहुत दूर है. कुल एमएसपी खरीद रु. 2.5 लाख करोड़, यानी कुल कृषि उपज का 6.25 प्रतिशत और एमएसपी के तहत उपज का करीब 25 प्रतिशत है. 

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राजनीति से प्रेरित तर्क? 

अब,अगर एमएसपी गारंटी कानून लाया जाता है तो सरकार कम से कम हर साल 10 लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त खर्च देख रही होगी. चीजों को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, यह लगभग उस खर्च 11.11 लाख करोड़ रुपए के बराबर है जो इस सरकार ने हाल के अंतरिम बजट में बुनियादी ढांचे के लिए अलग रखा है.  10 लाख करोड़ रुपए पिछले सात वित्तीय वर्षों में हमारे बुनियादी ढांचे पर किए गए वार्षिक औसत व्यय (2016 और 2023 के बीच 67 लाख करोड़ रुपए) से भी अधिक है. साफ है कि सार्वभौमिक एमएसपी मांग का कोई आर्थिक या राजकोषीय अर्थ नहीं है.  यह सरकार के खिलाफ एक राजनीति से प्रेरित तर्क है जिसका पिछले दस वर्षों में व्यापक कल्याण रिकॉर्ड रहा है. 

भले ही, तर्क के लिए, कोई यह मान ले कि लागत सरकार की तरफ से उठाई जा सकती है तो सवाल उठता है कि 10 लाख करोड़ रुपए कहां से आएगा पैसा? क्या हम, नागरिक के रूप में, बुनियादी ढांचे और रक्षा में सरकारी खर्च को उल्लेखनीय रूप से कम करने, या प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से अधिक कराधान के विचार से सहमत हैं?

तो पटरी से उतर जाएगी अर्थव्‍यवस्‍था...

साफ तौर पर समस्या कृषि या आर्थिक नहीं है, और पूरी तरह से राजनीतिक है और साल 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले किया गया एक प्रयास है. व्यापक भ्रष्टाचार के रडार के तहत कई राजनीतिक दलों की तरफ से इसका समर्थन किया गया था. साल 2025 के वित्‍तीय वर्ष में 45 लाख करोड़ रुपए वाले बजट से 10 लाख करोड़ रुपए खर्च करने का सिर्फ विचार ही एक वित्तीय आपदा के बराबर है जो स्पष्ट रूप से हमारी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार देगा.(हिमांशु मिश्रा की रिपोर्ट) 

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