पराली नहीं, गाड़ियों का धुआं बना दिल्ली का काल...साफ हवा के लिए तरसे लोग

पराली नहीं, गाड़ियों का धुआं बना दिल्ली का काल...साफ हवा के लिए तरसे लोग

आंकड़े बताते हैं कि सितंबर से लेकर नवंबर तक 'सेकंडरी एरोसॉल' ने सबसे अधिक प्रदूषण फैलाया. इस एरोसॉल में सल्फेट और नाइट्रेट जैसे केमिकल आते हैं जो गाड़ियों के धुएं से फैलते हैं. इस एरोसॉल ने कचरे के धुएं के साथ मिलकर हवा को और भी अधिक जहरीला बना दिया.

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पराली नहीं, गाड़ियों का धुआं बना दिल्ली का काल...साफ हवा के लिए तरसे लोगपराली नहीं, गाड़ियों का धुआं बना दिल्ली का काल

क्या वजह है जो दो महीने से दिल्ली की हवा जहर बनी हुई है? क्या वजह है जो दिल्ली वालों को सांस लेने के लिए सोचना पड़ रहा है? अगर आप इस मर्ज का ठीकरा पराली पर फोड़ रहे हैं तो आप गलत हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि जब हरियाणा-पंजाब में पराली न के बराबर जली, तो आखिर दिल्ली का धुआं इतना जहर क्यों उगल रहा है? इससे साफ है कि प्रदूषण को लेकर रॉन्ग नंबर डायल किया जा रहा है. इससे साफ है कि जहरीले धुएं के लिए पराली विलेन नहीं बल्कि कुछ और है. Real time source apportionment study की मानें तो गाड़ियों और फैक्ट्रियों का धुआं इसकी असली वजह है.

अब इसे विस्तार से जानते हैं. ग्रैप की पाबंदियां लगने से पहले दिल्ली में बेधड़क ट्रक घुस रहे थे. लाखों में गाड़ियां सड़कों पर रेंग रही थीं. बसें भले हीं सीएनजी के नाम पर हरी और नीली हों, लेकिन उनका धुआं भी फैलता जा रहा था. सबसे बड़ी बात ये कि बिजली घर, फैक्ट्रियों, कारखानों से उठते धुएं भी जहर फेंक रहे थे. इन सभी फैक्टर्स ने मिलकर महज डेढ़-दो महीने में दिल्ली की हवा का कचूमर निकाल दिया. और ताज्जुब की बात ये कि पूरा सरकारी महकमा पराली को दोष देता रहा. वह पराली जो मिलों दूर हरियाणा और पंजाब में जलाई गई. स्थानीय स्तर पर इसे धुएं का कारण मान सकते हैं. पर दिल्ली में इसे सबसे बड़ा खलनायक बताना, कुछ समझ नहीं आ रहा.

ये तीन फैक्टर्स जिम्मेदार

दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के तीन सबसे बड़े फैक्टर्स की बात करें तो पहले नंबर पर गाड़ियों और कचरे का धुआं है. इसके साथ कारखाने, फैक्ट्रियां और बिजली घरों की बारी आती है जहां कोयले का इस्तेमाल होता है. 'इंडियन एक्सप्रेस' की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली के पॉश इलाकों में पीएम 2.5 का स्तर जानलेवा रहा तो इसमें ट्रांसपोर्ट सेक्टर का सबसे अधिक योगदान था. 30 फीसद प्रदूषण के साथ यह फैक्टर नंबर वन रहा. 27 फीसद प्रदूषण के साथ दूसरे नंबर पर बायोमास रहा जिसमें कचरे से लेकर अन्य धुएं शामिल हैं.

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रिपोर्ट बताती है कि गाड़ियों और कारखानों के धुएं में मानो रेस लगी हो कि कौन हवा को कितना जहरीला बना सकता है. यही वजह है कि जब हरियाणा-पंजाब में पराली जलने की घटनाएं बेहद कम थीं तो इधर राष्ट्रीय राजधानी में बायोमास के धुएं ने चारों ओर जहर फैला दिया. इस दौरान कचरा जलने से 40 परसेंट तक प्रदूषण फैला. आंकड़े बताते हैं कि सितंबर से लेकर नवंबर तक 'सेकंडरी एरोसॉल' ने सबसे अधिक प्रदूषण फैलाया. इस एरोसॉल में सल्फेट और नाइट्रेट जैसे केमिकल आते हैं जो गाड़ियों के धुएं से फैलते हैं. इस एरोसॉल ने कचरे के धुएं के साथ मिलकर हवा को और भी अधिक जहरीला बना दिया.

पराली नहीं गाड़ियां जिम्मेदार

पराली जहरीले धुएं के लिए जिम्मेदार नहीं, इसे समझने के लिए एक-दो दिन पहले की पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक रिपोर्ट देख सकते हैं. यह रिपोर्ट कहती है कि पिछले छह दिन से दिल्ली की हवा में पराली के प्रदूषण की हिस्सेदारी 10 फीसद से कम रही है. लेकिन दिल्ली में प्रदूषण कम होने का नाम नहीं ले रहा. इतना नहीं नहीं, बीते वर्षों से तुलना करें तो इस बार बाहरी राज्यों में पराली जलाने की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन दिल्ली के प्रदूषण में कोई कमी नहीं है. हरियाणा-पंजाब में पराली कम जलने के बावजूद दिल्ली में अभी पीएम 2.5 का स्तर तीन गुना से अधिक है. इससे साफ है कि दिल्ली के लोकल फैक्टर ही यहां की हवा को जहरीला बना रहे हैं.

जिस बात पर किसी का फोकस नहीं है, वो बात यही सेकंडरी एरोसॉल है. इसने लोगों को सबसे अधिक सांस लेना दूभर किया है. इस एरोसॉल में मुख्य तौर पर नाइट्रोजन के ऑक्साइड और सल्फर डाईऑक्साइड होते हैं. और इसके पार्टिकल गाड़ियों और कारखानों के धुएं से निकलते हैं. इसी में हमारे पावर प्लांट भी हैं जो दिल्ली के बाहरी इलाकों में फैले हैं. यही वजह है कि एक्सपर्ट का एक तबका दिल्ली के धुएं को सुधारने के लिए फोकस बदलने पर जोर दे रहा है. यह तबका कहता है कि पराली नहीं बल्कि गाड़ियों और कचरे-कारखानों का धुआं दिल्ली वालों के लिए काल है. इसलिए पंजाब की पराली के पीछे मत पड़ो, पहले अपना घर सुधारो.

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