रेगिस्तान में पानी की उम्मीद, बावलीइस बार किसान दिवस स्पेशल में हम आपको करवा रहे हैं दुनिया भर के खेतों की सैर. बता रहे हैं दुनिया भर के किसानों की इनोवेशन. इस आर्टिकल में जानिए राजस्थान में बनाई जाने वाली बावड़ियों की कहानी. ऐसी कहानी जो आपको बताएगी कि राजस्थान के रेगिस्तान में किसानों ने बावड़ी की मदद से खेती की थी. राजस्थान का जिक्र आते ही रेतीली जमीन, मरुस्थल, कांटेदार झाड़ियां और रेंगते ऊंटों के झुंड की तस्वीर ही हमारे जेहन में आती है. चाहे तस्वीरों में देखें या फिल्मों में राजस्थान में राजसी ठाट, रंग और संस्कृति विरासतों की कितनी भी चकाचौंध हो लेकिन वहां का सूखाग्रस्त इलाका नहीं छुपाया जा सकता. पानी की समस्या को दूर करने के लिए राजस्थान में सदियों से बावड़ियां बनाई जाती थीं. इसका उपयोग पीने के पानी अलावा खेती के लिए भी किया जाता था.
आज बावड़ी देश में लगभग विलुप्त होने की कगार पर है लेकिन इसके अवशेष देखने को मिल जाते हैं. कुछ गिने-चुने इलाके हैं जहां आज भी इनका उपयोग किया जाता है. बावड़ी बनाने का उद्देश्य बारिश के पानी को इकट्ठा करना था इसके लिए पत्थर और मिट्टी हटाकर गहरी खुदाई की जाती थी और बलुआ पत्थर या ग्रेनाइट से मजबूत दीवारें बनाई जाती थीं, ताकि मिट्टी ना धंसने पाए. इसके बाद आसपास की ढलान और नालियों से वर्षा जल बावड़ी में लाया जाता था. नीचे तक जाने के लिए चौड़ी और मजबूत सीढ़ियाँ बनाई जाती थीं.
राजस्थान के सूखाग्रस्त इलाकों में पीने के पानी के अलावा खेती के लिए भी बावड़ियां संजीवनी थीं. इनका इस्तेमाल करके खेतों की सिंचाई भी इन्हीं बावड़ियों से की जाती थी. कुएं या बावड़ी के पानी को खेतों तक पहुंचाने के लिए रस्सी-डोल या चरखी का इस्तेमाल होता था. तालाब या बावड़ी से पानी को पहले एक मुख्य नाली में छोड़ा जाता था जो गहरी और चौड़ी होती थी, इसके बाद फिर छोटी-छोटी नालियों से अलग-अलग खेतों में पहुंचाया जाता था. इसके अलावा बैल या ऊंट से चलने वाले यंत्रों की मदद से भी पानी उठाया और खेतों तक पहुंचाया जाता था. तालाब, कुआं या बावड़ी से पानी निकालकर एक हौदा में भरा जाता था और फिर वहां से खेतों तक पहुंचाया जाता था.
आज के समय में बावड़ी कम ही देखने को मिलती है इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि बावड़ी बनाने वाले कारीगर अब मुश्किल से मिलते हैं. इसके अलावा बोरवेल, ट्यूबेल और आधुनिक तरीके से सिंचाई होने लगी है जिसके चलते बावड़ी का इस्तेमाल कम हो गया. इसकी देखभाल भी अब के लोगों के लिए एक चुनौती बन गई है, जिसके चलते अब वे क्षतिग्रस्त होने लगी हैं. कई जगहों में लोगों ने इसमें कचरे भरने शुरू कर दिए. धीरे-धीरे बावड़ियां गायब होती जा रही हैं.
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