कृषि क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरों के बीच भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) में बड़े बदलाव के लिए एक कमेटी बनाई गई है. यह 11 सदस्यीय कमेटी है, जिस पर डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा समस्तीपुर के पूर्व वाइस चांसलर डॉ. आरसी श्रीवास्तव ने अपने विचार साझा किए हैं. इस कमेटी को रिपोर्ट देने के लिए 24 मई तक का वक्त दिया गया है. 'किसान तक' से बातचीत में श्रीवास्तव ने आशंका जताई कि इस कमेटी की रिपोर्ट के जरिए आईसीएआर के साइज को छोटा किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि विभिन्न एग्री क्लाइमेटिक जोन में स्थित शोध संस्थानों के विलय का कोई भी विचार भविष्य के अनुसंधान के लिए विनाशकारी और हानिकारक होगा. सबसे पहली आवश्यकता यह होनी चाहिए कि अलग-अलग क्लाइमेटिक जोन में स्थित संस्थानों के विलय के विचार को छोड़ दिया जाए. एक ही क्लाइमेटिक जोन के बिखरे हुए संस्थानों का विलय जरूर हो सकता है.
डॉ. श्रीवास्तव को आईसीएआर और कृषि विश्वविद्यालयों में काम करने का 45 वर्ष का अनुभव है. उन्होंने इस अनुभव के आधार पर कहा कि मैं वैज्ञानिक के रूप में प्रवेश से लेकर केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति तक विभिन्न स्तरों पर आईसीएआर के पुनर्गठन के लिए कुछ सुझाव देना चाहता हूं. दूर दराज के क्षेत्रों में स्थित कुछ रिसर्च सेंटर जहां 20 फीसदी भी कृषि वैज्ञानिक नहीं हैं उनको बंद कर दिया जाना चाहिए. या फिर उनका निकटतम विश्वविद्यालय और आईसीएआर संस्थान के साथ विलय कर दिया जाना चाहिए.
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भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) के इंदौर, समस्तीपुर (बिहार), कटरैन हिमाचल, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ स्वायल एंड वाटर कंजरवेशन (IISWC), कोरापुट ओडिशा और करनाल आदि के स्टेशन को बंद करने या नजदीकी रिसर्च इंस्टीट्यूट में विलय के लिए चिन्हित किया जा सकता है. विलय केवल समान एग्री क्लाइमेटिक जोन में स्थित संस्थानों में किया जाना चाहिए. इससे उनमें ज्यादा प्रभावी तरीके से काम हो पाएगा.
इसी तरह विशेष रूप से हर्टिकल्चर में अलग-अलग फसलों के संस्थानों का विस्तार हुआ है. जैसे अंगूर, प्याज, लहसुन और अनार के लिए अलग-अलग संस्थान एक ही क्लाइमेटिक जोन में स्थित हैं. उन सभी को इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ हॉर्टिकल्चरल रिसर्च (IIHR) के क्षेत्रीय स्टेशनों में परिवर्तित किया जाना चाहिए. इसी तरह लीची और मखाना के शोध संस्थानों को सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर सबट्रॉपिकल हार्टिकल्चर (CISH) लखनऊ के साथ अटैच करके उनके क्षेत्रीय स्टेशन बना देने चाहिए. ये केवल कुछ उदाहरण हैं.
श्रीवास्तव ने कहा कि यह पहली बार नहीं है कि आईसीएआर ने अपने संगठन के कामकाज की समीक्षा के लिए समिति गठित की है. हालांकि पहली बार समिति की अध्यक्षता एक प्रमुख वैज्ञानिक की बजाय एक नौकरशाह द्वारा की जा रही है. पहले समितियों की अध्यक्षता डॉ. आरए माशेलकर, डॉ. एमएस स्वामीनाथन और डॉ. रामास्वामी जैसे प्रख्यात वैज्ञानिक करते थे. कुछ साल पहले बनाई गई रामास्वामी समिति ने कुछ संस्थानों के विलय की सिफारिश की थी. मैं पूसा समस्तीपुर के वाइस चांसलर रूप में चर्चा का हिस्सा था और मैंने अपनी प्रस्तुति में इसका विरोध किया था. किसी भी सेंटर के विलय का वैज्ञानिक आधार होना चाहिए.
इससे पहले कि हम आईसीएआर के पुनर्गठन या उसका आकार बदलने की बात करें, पहले हम भारतीय कृषि की आगामी चुनौतियों पर चर्चा करें. इस वक्त कृषि क्षेत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती जलवायु परिवर्तन की है. विभिन्न एग्री क्लाइमेटिक जोन में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, प्रकार और सीमा में भिन्नता होती है. इसलिए इसका आकार छोटा करना भारतीय कृषि क्षेत्र के लिए ठीक नहीं होगा. भारत के कृषि क्षेत्र की इतनी तरक्की में आईसीएआर का बहुत बड़ा योगदान है.
डॉ. श्रीवास्तव ने कहा कि आईसीएआर के हर संस्थान को पूर्वोत्तर राज्यों में कृषि विकास का भी काम दिया गया है. इसके लिए पैसा भी मिलता है. यह व्यवस्था किसी काम की नहीं है. क्योंकि पूर्वोत्तर राज्यों में पहले से ही आईसीएआर के कई संस्थान और क्षेत्रीय केंद्रों के साथ एक केंद्रीय विश्वविद्यालय भी है. इसलिए आईसीएआर के अलग-अलग संस्थानों को पूर्वोत्तर के लिए मिलने वाली रकम वहीं के संस्थानों और विश्वविद्यालय को दी जानी चाहिए. इससे अच्छा काम होगा. इससे वैज्ञानिक अपने क्षेत्र की समस्याओं पर काम कर सकेंगे.
समस्तीपुर केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति ने कहा कि प्रत्येक कृषि शोध संस्थान के साथ 2-3 कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) जुड़े होने चाहिए. जिनके पास एक्सटेंशन की जिम्मेदारी होनी चाहिए. वैज्ञानिकों को नियमित एक्सटेंशन गतिविधियों से मुक्त किया जाना चाहिए. हालांकि, टेक्नोलॉजी के लिए वैज्ञानिकों के दावों का केवीके के सहयोग से किसानों के खेत पर कड़ाई से परीक्षण किया जाना चाहिए और संबंधित वैज्ञानिकों को उसके लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए.
इस समय केवीके की पहुंच 10-15 किमी के दायरे तक ही सीमित है. इन्हें डिजिटल तकनीक से जोड़कर उनकी पहुंच बढ़ाई जानी चाहिए. पूसा, समस्तीपुर में मैंने इस संबंध में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया था, लेकिन मेरे जाने के बाद यह अटक गया है. मॉडल का अध्ययन करने और सभी केवीके में इसे अपनाने की आवश्यकता है. इससे केवीके की प्रभावशीलता कई गुना बढ़ जाएगी. 5जी आने से क्षमता और बढ़ेगी. साथ ही कृषि के शोध संस्थानों में प्रशासनिक पदों की संख्या कम करके संसाधनों का खर्च कम किया जाए.
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