
दिवाली के साथ ही पराली का मुद्दा भी गरम हो गया है, क्योंकि इस वक्त दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण काफी बढ़ गया है. हरियाणा, पंजाब और पश्चिम यूपी सहित कई क्षेत्रों में धान की कटाई जोरशोर से चल रही है. ऐसे में काफी लोग प्रदूषण के लिए पराली को जिम्मेदार मान रहे हैं. जब भी धुंध की वजह से दिल्ली-एनसीआर की तस्वीर बदलती है, तब सबकी नजर में पराली और किसान खलनायक की तरह दिखते लगते हैं. लेकिन कड़वी बात यह है कि वायु प्रदूषण का सच कहीं धुंध और धुएं के साथ गुम हो जाता है. तो सवाल यह पैदा होता है कि दिल्ली के प्रदूषण का विलेन आखिर है कौन? हरियाणा-पंजाब के किसान और धान या फिर दिल्ली-एनसीआर वालों की खुद की वजह? या फिर मौसम?
सच बात तो यह है कि दिवाली के आसपास दिल्ली में प्रदूषण बढ़ने की एक वजह मौसम भी है? आईए आंकड़ों के आईने में इसे देखने की कोशिश करते हैं. जिन लोगों को ऐसा लगता है कि दिल्ली में प्रदूषण की वजह पराली का जलना है उन्हें समझना चाहिए कि जैसे सितंबर से नवंबर तक धान की पराली जलती है वैसे ही अप्रैल से मई तक किसान गेहूं की पराली भी जलाते हैं. अगर पराली का जलना ही दिल्ली के प्रदूषण का कारण है तो फिर अप्रैल-मई में इसकी चर्चा क्यों नहीं होती?
पिछले साल यानी 2024 में 37,602 जगहों पर धान की पराली जलाई गई. जिस वक्त पराली जलाई गई उस वक्त दिल्ली में प्रदूषण चरम पर था इसलिए प्रदूषण के लिए पराली के साथ पंजाब, हरियाणा के किसानों को खूब कोसा गया. लेकिन 2025 में गेहूं की पराली 60,915 जगहों पर जली. इसके बावजूद इससे होने वाले प्रदूषण की कोई चर्चा तक नहीं हुई. सवाल यह है कि क्या गेहूं की पराली से प्रदूषण नहीं होता? असल में प्रदूषण तो होता ही है. तो फिर धान के मुकाबले लगभग डबल जगहों पर गेहूं की पराली जलने के बावजूद क्यों प्रदूषण का मुद्दा नहीं उठा?
किसान हर साल गेहूं के अवशेषों को भी जलाते हैं, जबकि वायु प्रदूषण के लिए बदनाम धान की पराली होती है. वजह यह है कि अक्टूबर-नवंबर में जिस वक्त धान की पराली जल रही होती है उस समय हवा की रफ्तार अप्रैल-मई जैसी नहीं होती. हवा ठहरी होती है. ओस पड़नी शुरू हो जाती है, जिससे धूल और धुआं मिल जाते हैं. इन दिनों दिल्ली की हवा अगर हल्की होती तो प्रदूषण को लेकर इतना शोर नहीं मचता. दूसरी ओर, गर्मियों में हल्की हवा होती है तो पॉल्यूशन ऊपर की ओर चला जाता है और आसमान में बिखर जाता है. इसलिए मई जून में जब पराली जलती है तो दिल्ली पर स्मॉग नहीं छाता. यानी ये वेदर फेनोमेना है.
असल के प्रदूषण के लिए किसान जिम्मेदार नहीं है. साल दर साल यह बात साबित होती जा रही है. आंकड़े भी इसकी गवाही दे रहे हैं. साल 2020 में पराली जलाने के 89,430 मामले सामने आए थे, जबकि 2024 में यह घटकर सिर्फ 37,602 ही रह गए. पूरे देश में पराली जलाने की घटनाएं कम हो रही हैं, लेकिन दिल्ली का प्रदूषण बढ़ता ही रहा है. पराली जलाने की घटनाओं में इतनी कमी के बावजूद प्रदूषण का कम न होना, यह साफ करता है कि प्रदूषण का कारण किसान नहीं है. प्रदूषण दिल्ली की अपनी खेती है. बस यहां के लोग सच का सामना नहीं करना चाहते.
अगर मान भी लिया जाए कि 15 दिन किसान थोड़ा सा धुआं देते भी हैं तो वो साल भर हरियाली भी तो देते हैं. दिल्ली के वो लोग जो वायु प्रदूषण के लिए धान की पराली और किसान को कोसते रहते हैं वो बेतहाशा बढ़ते कंस्ट्रक्शन, गाड़ियों, फैक्ट्रियों के धुएं और सड़कों की धूल के मुद्दे से मुंह चुरा लेते हैं. साल भर तक नदियों को गंदा करने वाले कभी जल प्रदूषण के लिए अपने गिरेबान में नहीं झांकते.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (IIT), कानपुर ने वर्ष 2016 में दिल्ली के प्रदूषण पर एक स्टडी की थी. इसकी रिपोर्ट दिल्ली सरकार और दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण कमेटी को सौंपी गई थी. रिर्पोट कहती है कि दिल्ली में प्रदूषण के लिए ट्रांसपोर्ट, इंडस्ट्री, रोड साइड की धूल और कंस्ट्रक्शन सबसे बड़े कारक हैं. पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की संस्था ‘सफर’ (SAFAR) ने भी दिल्ली के प्रदूषण पर 2018 में एक रिपोर्ट दी थी. जिसमें ट्रांसपोर्ट, इंडस्ट्री और डस्ट को वायु प्रदूषण का बड़ा कारण माना गया था.
इसे भी पढ़ें: Women Farmer's Day: कृषि क्षेत्र में हर जगह 'नारी शक्ति' का योगदान, फिर क्यों नहीं मिलती पहचान?
इसे भी पढ़ें: क्यों जरूरत से दोगुना किया गया दालों का आयात, किसने लिखी किसानों को तबाह करने वाली स्क्रिप्ट?
Copyright©2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today