मन्नत के नाम पर खुद को गायों से कुचलवाते हैं लोग, दिवाली के बाद निभाई जाती है यह परंपरा

मन्नत के नाम पर खुद को गायों से कुचलवाते हैं लोग, दिवाली के बाद निभाई जाती है यह परंपरा

उज्जैन जिले के भिड़ावद गांव में दीपावली के अगले दिन निभाई जाती है ‘गौरी परंपरा’, जिसमें ग्रामीण खुद को गायों के पैरों से कुचलवाते हैं. ग्रामीणों का दावा— किसी को चोट नहीं आती, मन्नतें होती हैं पूरी.

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मन्नत के नाम पर खुद को गायों से कुचलवाते हैं लोग, दिवाली के बाद निभाई जाती है यह परंपरामध्य प्रदेश में होती है गौरी परंपरा (सांकेतिक तस्वीर)

दीपावली के अगले दिन जब देशभर में गोवर्धन पूजा की जाती है, तब उज्जैन जिले की बड़नगर तहसील के ग्राम भिड़ावद में एक दिल दहला देने वाली परंपरा निभाई जाती है. यहां ग्रामीण गायों के पैरों से खुद को कुचलवाते हैं, और इसे ‘गौरी परंपरा’ कहा जाता है.

सैकड़ों गायें, जमीन पर लेटे ग्रामीण

इस परंपरा के तहत गांव के लोग जमीन पर लेटते हैं और उनके ऊपर से सैकड़ों गायों को दौड़ाया जाता है. यह दृश्य इतना भयावह होता है कि एक आम इंसान इसे देखकर कांप उठे. लेकिन स्थानीय ग्रामीण इसे श्रद्धा और मन्नत की पूर्ति से जोड़ते हैं.

ग्रामीणों का दावा है कि आज तक इस परंपरा में कोई जनहानि नहीं हुई और जो लोग व्रत रखते हैं, उन्हें कोई चोट नहीं लगती. ऐसी मान्यता है कि जो लोग मन्नत रखते हैं वे व्रत करते हैं और उनके ऊपर से गायें पार करती हैं. इससे उनकी मनोकामना पूरी होती है. व्रती को किसी की कोई हानि नहीं होती. लोग खुशी-खुशी इस परंपरा में शामिल होते हैं और गायों से कुचलवाते हैं.

व्रती कहते हैं कि गायों में देवी-देवताओं का वास होता है. इसलिए उनके कुचलने से कुछ नहीं होता और गायें जब पार हो जाती हैं तो लोग उठकर खुशी में नाचने लगते हैं.

व्रत, उपवास और मंदिर में रात्रि विश्राम

इस परंपरा को निभाने से पहले ग्रामीण एकादशी से व्रत रखते हैं, जिसमें वे कुछ भी नहीं खाते. दीपावली की रात गांव के प्राचीन भवानी माता मंदिर में बिताते हैं. फिर पड़वा (गोवर्धन पूजा) की सुबह गायों को इकट्ठा कर व्रतधारी युवकों के ऊपर से निकाला जाता है. इस परंपरा से पहले गांव के लोग भवानी मंदिर की पांच बार परिक्रमा करते हैं और वहीं रहते हैं. इस परंपरा में गायों की संख्या काफी होती है, लेकिन किसी व्रती को किसी तरह का नुकसान नहीं होता.

भवानी मंदिर में होती है पूजा

इस बार गांव के 02 लोगों ने यह व्रत रखा था, जिसका निर्वहन बुधवार को किया गया. गांव के लोग बताते हैं कि इस व्रत को रखने के बाद एकादशी से लोग कुछ नहीं खाते और दीपावली की रात गांव के ही मंदिर में रहते हैं. अगले दिन तड़के इस व्रत को पूरा करने के लिए गांव के सब पशुओं को एकत्रित किया जाता है और व्रतधारी युवकों के उपर से निकाला जाता है. ऐसा करने से उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती है. यह परंपरा आज की नहीं, बल्कि लंबे समय से चली आ रही है.

आस्था या अंधविश्वास?

गांव वाले इस परंपरा को खुशहाली और मनोकामना की पूर्ति से जोड़ते हैं, लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस तरह खुद को खतरे में डालना सही है? आधुनिक दौर में यह परंपरा आस्था और अंधविश्वास के बीच बहस का विषय बनती जा रही है.(संदीप कुलश्रेष्ठ का इनपुट)

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