आजकल जब हम तेलुगू सिनेमा की बात करते हैं तो ज़हन में तुरंत ‘बाहुबली’ ‘पुष्पा’ ‘के जी एफ’ और ‘आर आर आर’ जैसी सुपर हिट फिल्में कौंधती हैं. तेलुगू सिनेमा की लोकप्रियता का आलम यह है कि 2022 में टॉलीवुड ने बॉलीवुड से भी ज़्यादा कारोबार करके दुनिया भर में मशहूर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री को पीछे छोड़ दिया. ओ टी टी प्लेटफॉर्म्स ने हमारे प्रादेशिक सिनेमा को भी दुनिया भर तक पहुंचाने में अहम रोल अदा किया है. लेकिन, आज हम बात करेंगे एक ऐसी तेलुगू फिल्म की, जिसे बनाया था. एक लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और निर्देशक गुड़ावल्ली रामब्रहमम ने, प्रोड्यूस किया था. दक्षिण के एक महत्वपूर्ण जमींदार चल्लापल्ली महाराज ने और फिल्म आधारित थी. जमींदारी प्रथा के विरोध में उठते किसानों के हालात पर, फिल्म का नाम है ‘रईतु बिंदा’.
वर्ष 1939 में बनाई गयी इस फिल्म के निर्देशक गुड़ावल्ली रामब्रहमम एक दिलचस्प शख्सियत थे. नंदमुरु गाँव में जन्मे रामब्रहमम युवावस्था में ही अपनी पढ़ाई छोड़ कर असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए थे. 1924 में उन्होने ‘फ्रेंड्स एंड को’ नाम से एक स्टेशनरी की दुकान खोली. लेकिन , कारोबार से ज़्यादा यह दुकान साहित्यकारों, व कलाकारों के मिलने बैठने और चर्चा करने की जगह बन गयी और आखिरकार 1930 में यह दुकान बंद कर देनी पड़ी. 1931 में उन्होंने अखिल आंध्र किसान महासभा का आयोजन किया और इसकी अध्यक्षता भी की. 1934 में उन्हे आंध्र नाटक परिषत्तू का सचिव चुना गया.
फिर उन्होंने कम्मा जनजाति पर गहन शोध किया. गंडीकोटा पर भी रिसर्च की और फिर नाटक लिखा ‘गंडीकोटा पतनम’ जो बहुत लोकप्रिय हुआ और अनेक शहरों में इसका मंचन किया गया. वे दस वर्षों तक ‘प्रजामित्र’ नाम की पत्रिका के संपादक रहे और इस दौरान ‘प्रजामित्र’ के दफ्तर में तेलुगू कलाकारों और साहित्यकारों का जमावड़ा लगा रहता था.
इसके बाद उन्हें सिनेमा की दुनिया ने आकर्षित किया और उन्होने सारथी सिनेमा नाम से एक संस्था शुरू की. उस जमाने में ज़्यादातर फिल्में मिथकों या धार्मिक दंत कथाओं पर केन्द्रित होती थीं. पहली बार एक सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण मुद्दे पर फिल्म बनाने का श्रेय जाता है. गुड़ावल्ली रामब्रहमम को, जातिगत भेदभाव के कथानक पर 1938 में उन्होने एक फिल्म निर्देशित की - ’मालापिल्ला’. यह फिल्म हिट साबित हुई.
इसके बाद उन्होंने सामाजिक-राजनीतिक कथानक पर अनेक फिल्में बनाई जिनमें प्रमुख है. ‘रइतु बिंदा’, रइतु बिंदा का अर्थ होता है- मिट्टी का लाल-किसान. लोकप्रिय थिएटर कलाकार बल्लरी राघवय्याचारी ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई- नरसी रेड्डी नाम के किसान की.
फिल्म की कहानी नागपुरम गाँव में किसानों के दो गुटों के इर्द गिर्द घूमती है. रमिरेड्डी आम किसान के गुट का नेता है और वेंकय्या जमींदारों का प्रतिनिधि है. गाँव के कुछ अन्य अमीर लोग भी जमींदारों का ही समर्थन करते हैं और गरीब किसानों को परेशान करते रहते हैं. इन्हीं किसानों में से एक है नरसी रेड्डी, जब नरसी बहुत मुखर तरीके से जमींदारों का विरोध करता है तो उस पर दबाव डाला जाता है कि वह जमींदारों के खिलाफ कुछ ना बोले और अपना कर्जा जल्दी वापिस करे. लेकिन, किसी भी तरह का दवाब नरसी के विरोध को रोक नहीं पाता तो जमींदार और साहूकार मिल कर उसकी बेटी की शादी तुड़वा देते हैं. नरसी के परिवार को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
चुनाव के दौरान जमींदार एक नाटक का मंचन करवाता है और गाँव के किसानों को हॉल में ही बंद करवा देता है. ताकि वे मतदान बूथ तक जा ही ना पाएं. लेकिन किसान हार नहीं मानते और हॉल का ताला तोड़ कर वोट देने जाते हैं. किसानों की जीत होती है. लेकिन, जमींदार और साहूकार उन्हें प्रताड़ित करने से बाज़ नहीं आते. इसी के चलते नरसी का बेटा दम तोड़ देता है. नरसी की पाई-पाई छीन ली जाती है.
उसी वक्त गाँव में बाढ़ आती है और साहूकार की सारी संपत्ति नष्ट हो जाती है. तब कहीं जाकर साहूकार और जमींदार की आँखें खुलती हैं और वे किसानों का हाथ थाम लेते हैं. नफरत, अमीर-गरीब का भेदभाव हार जाता है. मोहब्बत, शांति और भाईचारे की जीत होती है.
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हालांकि जमींदारी प्रथा के खिलाफ बनी इस फिल्म के प्रोड्यूसर खुद एक नामी गिरामी जमींदार थे. लेकिन, दक्षिण के जमींदारों को यह फिल्म फूटी आंख नहीं भाई. उन्होने इस फिल्म का पुरजोर विरोध किया. यहाँ तक कि कुछ जमींदारों ने तो कई इलाकों में फिल्म के प्रिंट तक जला डाले. बोब्बिली और वेंकटगिरी राजघरानों ने प्रोड्यूसर पर मुकदमा करने की धमकी तक दे डाली. नतीजा ये हुआ कि जमींदारों के दवाब में आकर अंग्रेज़ सरकार ने इस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया.
यह भारत की पहली बोलती फिल्म थी, जिसे बैन किया गया. बाद में, आज़ाद भारत में इसे वर्ष 1948 में एक बार फिर रिलीज़ किया गया. गुड़ावल्ली रामब्रहमम इस मायने में एक विजनरी निर्देशक थे कि उन्होने ना सिर्फ इस फिल्म के जरिये किसानों की समस्याओं को हाइलाइट किया बल्कि इन समस्याओं के संभावित हल और निदान पर भी चर्चा की.
उस समय यह फिल्म जमींदारी प्रथा के खिलाफ एक सशक्त स्टेटमेंट थी. आज भी यह उतनी ही प्रासंगिक है. यह आदर्शवादी प्रतीत हो सकती है. लेकिन, उन आदर्शों के प्रति प्रयासरत होने से समस्याओं के हल भी मिल सकते हैं. शायद यही वजह थी कि निर्देशक रामब्रहमम ने इस मुद्दे पर फिल्म बनाने के बारे में सोचा. उन्होने ‘मालापिल्ला’ की सफलता के बाद एक ऐतिहासिक विषय पर फिल्म बनाने की घोषणा की थी. इसी बीच उन्होने कम्पोज़िट मद्रास राज्य का दौरा किया. वहाँ के किसानों की दुर्दशा देख कर वे इतने द्रवित हो गए कि उन्होंने ‘रइतु बिंदा’ बनाने का निश्चय किया.
फिल्म पर तेलुगू सुधारवादी विचारक कंदकूरी वीरेसलिंगम, कविराज रामास्वामी चौधरी और महात्मा गांधी की विचारधारा और आदर्शों का असर साफ झलकता है. फिल्म में किसान सभा के कार्यकर्ता एन वेंकटरामा नायडू के अनेक क्रांतिकारी गीतों का भी इस्तेमाल किया गया.
‘रईतु बिंदा’ इस बात का सबूत है कि कलाकार, साहित्यकार और बुद्धिजीवी एक समाज की रग, उसकी आत्मा को पहचानते हैं और तमाम राजनीतिक या आर्थिक दबावों के बावजूद वे अपने समाज के विकारों और कमजोरियों को अभिव्यक्त करने में हिचकिचाते नहीं. आज ‘रईतु बिंदा’ को भारत के किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली शास्त्रीय फिल्म के रूप में जाना जाता है और निर्देशक रामब्रहमम को एक ‘विजनरी’ फ़िल्मकार के तौर पर.
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