देश में दलहनी फसलों के रकबे में कमी, दाल में आत्मनिर्भरता मिशन पर सवाल... क्या नीतियों में बदलाव की जरूरत है?

देश में दलहनी फसलों के रकबे में कमी, दाल में आत्मनिर्भरता मिशन पर सवाल... क्या नीतियों में बदलाव की जरूरत है?

इस साल खरीफ और रबी सीजन में दलहनी फसलों के रकबों में कमी के कारण, देश में मांग और आपूर्ति में अंतर बढ़ सकता है, जिससे देश में दाल को बड़ी मात्रा में आयात करना पड़ सकता है. सरकार दलहन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में प्रयास कर रही है ताकि साल 2027 तक भारत दाल क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सके.

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देश में दलहनी फसलों के रकबे में कमी, दाल में आत्मनिर्भरता मिशन पर सवाल... क्या नीतियों में बदलाव की जरूरत है?दालों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ाने पर सरकार का जोर

भारत में दाल क्षेत्र में आत्म निर्भरता प्राप्त करने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की जरूरत है, क्योंकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, रबी दलहन फसलों का कुल उत्पादन क्षेत्र 7.53 लाख हेक्टयर घट गया है. पिछले साल के 162.66 लाख हेक्टेयर से घटकर इस बार 155.13 लाख हेक्टेयर रह गया है. चना, उड़द, और मूंग का क्षेत्र इसमें शामिल है. इसी साल खरीफ सीजन में दलहन का क्षेत्र 5.41 लाख हेक्टेयर से कम हो गया है. इस घटे हुए रकबे के कारण मांग और आपूर्ति में अंतर बढ़ सकता है, यानी इससे देश में दाल को बड़ी मात्रा में आयात करना पड़ सकता है, जबकि सरकार दलहन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में प्रयास कर रही है ताकि साल 2027 तक भारत दाल क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सके.

जलवायु परिवर्तन के दौर में कैसे होंगे आत्मनिर्भर?

अब सवाल उठता है कि खरीफ और रबी सीजन में दलहन की बुवाई इतनी कम क्यों हुई है, जबकि दालों की आयात निर्भरता 2013-14 में 19 फीसदी से घटकर 2021-22 में लगभग 9 फीसदी हो गई थी. नीति आयोग का अनुमान था कि 2030-31 तक इसके और कम होकर लगभग 3 फीसदी होने का अनुमान था. लेकिन जिस तरह इस साल दलहन फसलों का क्षेत्र घटा है, उससे दलहन के क्षेत्र में देश में जलवायु परिवर्तन के दौर में दाल में आत्मनिर्भरता कैसे प्राप्त कर सकते हैं.

सिंचित एरिया में दलहन फसलें क्यों नहीं?

किसान तक से बातचीत में भारतीय दलहन अनुसंधान संस्थान कानपुर के निदेशक, डॉ. पीजी दीक्षित ने कहा कि दलहनी फसलों की मुख्य रूप से वर्षा आधारित जमीनों में खेती होती है. इस खरीफ मौसम में कम बारिश के कारण दक्षिण के राज्यों, जैसे आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, सहित मध्य प्रदेश में दलहनी फसलों का क्षेत्र कम हो गया है. वैसे ही, रबी मौसम में अक्टूबर में कम वर्षा के कारण खेतों में नमी की कमी हो गई है, जिससे मुख्य रूप से चना के क्षेत्र महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों में काफी कम हो गया है. उन्होंने कहा कि दलहन और मोटे अनाजों की खेती सिंचित और वर्षा आधारित क्षेत्रों में होती है और इन क्षेत्रों में मोटे अनाजों की खेती में प्रोत्साहन मिलने से किसानों ने मोटे अनाजों की ओर रुख किया है.

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डॉ. दीक्षित ने कहा कि उत्तर भारत के किसान दलहनी फसलों के सिंचित क्षेत्रों में दलहन की जगह धान-गेहूं की फसल को ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि किसानों को दलहनी फसलों की तुलना में धान-गेहूं में ज्यादा फायदा दिखता है. इसके अलावा, सिंचित क्षेत्रों में धान-गेहूं की तरह इसकी खरीदारी और प्रति एकड़ में ज्यादा लाभ होने की वजह से किसान दलहन फसलों  की खेती की ओर ज्यादा रुख कर रहे हैं.

धान-गेहूं में क्यों दिखता है अधिक फायदा?

मंत्रालय द्वारा 2017 में प्रकाशित रिपोर्ट, "रेट्रोस्पेक्ट एंड प्रॉस्पेक्ट्स," में कहा गया है कि लगभग 1990 के आसपास, गंगा के मैदानी इलाकों में किसानों ने सिंचाई सुविधाओं में सुधार के कारण दालों को छोड़ दिया और अन्य फसलों की तरफ शिफ्ट हो गए हैं. इसलिए सिंचित एरिया में धान-गेहूं फसलों की तुलना में दलहन फसलें बेहतर दिखती हैं, क्योंकि इन फसलों की बुवाई से लेकर बाजार तक की व्यवस्था किसानों को बेहतर लगती है. एक आंकड़े के अनुसार, जहां रबी में गेहूं की उपज प्रति हेक्टेयर औसत उपज 35 क्विंटल है, वहीं दलहन फसलों में चना की बात करें तो प्रति हेक्टेयर औसत 9-10 क्विंटल ही मिलती है. सिंचित एरिया में यह अंतर बड़ा दिखता है. 

 शुष्क क्षेत्रों में भी दलहन फसलों पर संकट?

दलहन फसल शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में किसानों के लिए बेहतर दिखती है. समय से अगर शुष्क एरिया में बारिश होती है तो किसान दलहन फसलों की ज्यादा बुवाई करते हैं. लेकिन सिंचाई करके दलहन फसलों की खेती करना ज्यादा फायदे का सौदा नहीं दिखता है. हालांकि, सरकार की प्रोत्साहन नीतियों के कारण दालों के उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई है. जहां साल 2013 में कुल 183.34 लाख टन दालों का उत्पादन हुआ, जो साल 2023 में बढ़कर 278.10 लाख टन हो गया था. इसमें 10 साल में 94.76 लाख टन की वृद्धि हुई है. इस तरह लगभग 51 फीसदी से अधिक बढ़ोतरी हुई, मगर इसमे किसानों को मौसम ने बेहतर साथ दिया है.

भविष्य में सुधरेंगे हालात या आयात पर निर्भर

देश में जहां दालों की मांग बढ़ रही है, वैश्विक दलहन उत्पादन में हमारी हिस्सेदारी लगभग 25 प्रतिशत है, जबकि खपत में हिस्सेदारी 28 प्रतिशत है. इस तीन प्रतिशत के अंतर को भरने के लिए हमें हर साल करीब 25 से 27 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता है, जो पिछले वित्त वर्ष में 23 लाख टन दाल का आयात किया गया था. अब जिस तरह से रबी सीजन और खरीफ सीजन में फसल का क्षेत्र घटा है, उसे देखकर लग रहा है कि वित्त वर्ष 2024-25 में दालों का 30 लाख टन का रिकॉर्ड आयात करना होगा. इसको देखते हुए यह संकट का विषय बन गया है. अगर जलवायु परिवर्तन के दौर में बारिश कम होती है तो शुष्क क्षेत्रों में दलहन की एरिया घटेगी. दूसरी तरफ 2030 तक 326.40 लाख टन दालों की जरूरत है.

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ठोस नीति और कदम की जरूरत

अगर इस अंतर को कम करना है तो दलहन के क्षेत्र में प्रति हेक्टयर उत्पादन बढ़ाने के साथ सिंचित दशा में भी दलहन फसलों को लाभकारी बनाए रखने के लिए काम करना होगा. भारत ने ताजा दाल संकट से निपटने के लिए अगले पांच वर्षों में 325.47 लाख टन दाल उत्पादन का लक्ष्य रखा है, जिसको हासिल करने के लिए दलहन के रिसर्च पर ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ेंगे. कम मुनाफे वाली फसलों से ध्यान हटाकर उन्हें दलहन की खेती के लिए प्रोत्साहित करना होगा. वही दूसरी ओर किसानों को लाभकारी मूल्य दिलाने तक एक ठोस नीति की जरूरत होगी.

 

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