भारत को गांवों का देश कहा जाता है. मसलन, भारत की बड़ी आबादी आज भी गांवों में रहती है तो वहीं शहरों में रहने वाली बड़ी आबादी की आत्मा आज भी गांवों में ही बसती है. सीधे शब्दों में कहें तो भारत की भारतीयता यानी भारतीय संंस्कृति का असली प्रतिनिधित्व देश के 6 लाख से अधिक गांव ही करते हैं और इन गांवों का प्रशासनिक प्रतिनिधित्व पंचायतें करती हैं, जिन्हें प्राचीन प्रशासनिक इकाई के तौर पर भी जाना जाता है और इनका जिक्र वेदों में भी मिलता है.
इस बात से जुड़े सिक्के के दूसरे पहलू को देखा जाए तो पंचायतों ने प्राचीन समय से ही गांव संस्कृति को समृद्ध करने में अहम भूमिका निभाई है, जिसे मौजूदा समय तक भी भारतीयता यानी भारतीय संस्कृति के तौर पर रेखांकित किया जाता है, लेकिन देश की आजादी के बाद से अब तक की यात्रा में गांव का संस्थागत ढांचा लगातार कमजोर होता जा रहा है तो वहीं पंचायती राज्य व्यवस्था भी अपने पूरे आकार में नहीं आ पाई है.
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ऐसे में गांव और पंचायती राज व्यवस्था की मजबूती के लिए आवश्यकता दिखाई पड़ती है. मसलन आवश्यकता महसूस होती है कि देश की पंंचायती राज व्यवस्था पांच स्तरीय की जाए, जिससे राज्यों व केंद्र में गांव और पंचायतों का सक्रिय व वाजिब प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके. क्योंकि मौजूदा समय में पंचायती राज व्यवस्था से ही गांव और किसानों की रक्षा संभव दिखाई पड़ती है. आइए इसी कड़ी में समझते हैं कि मौजूदा पंचायती राज व्यवस्था क्या है. कैसे केंद्र व राज्यों में प्रतिनिधि होने के बावजूद भी गांव और पंचायतों काे सक्रिय प्रतिनिधित्व की आवश्यकता है.
इस मामले पर विस्तार से बात करने से पहले संविधान और पंचायती राज व्यवस्था पर संक्षिप्त में बात कर लेते हैं. इसके बारे में पंचायतों को लेकर तीसरी सरकार अभियान चला रहे डॉ चंद्र शेखर प्राण कहते हैं कि 1935 के इंडिया एक्ट में पंचायत प्रशासन का विषय राज्य सूची में रखा गया था. वहीं आजादी के बाद भारतीय संविधान निर्माण के लिए बनी संविधान सभा ने संविधान के प्रस्ताव के पहले वाचन में गांव और पंचायत का जिक्र तक नहीं किया. जिस पर महात्मा गांधी समेत कई लोगों ने आपत्ति जताई.
इसके बाद प्रस्ताव के दूसरे वाचन में संविधान के अंंदर गांव और पंचायतों के प्रतिनिधित्व में कई बहसें हुई. इसमें संविधान के अनुच्छेद 40 में गांवों और पंचायतों के अधिकार सुनिश्चित किए गए. जिसके क्रियान्वयन की जिम्मेदार 'दि स्टेट' की तय की गई. वहीं 26 नंवबर 1949 से पहले संविधान का तीसरा वाचन हुआ, जिसमें ये सहमति बनी कि संविधान के लागू हो जाने के बाद दि स्टेट (केंद्र, राज्य समेत सभी प्राशासनिक प्राधिकरण) अनुच्छेद 40 को लागू करवाने में मुख्य भूमिका निभाएंगे. डॉ प्राण कहते हैं कि इस तरह गांव और पंचायती राज व्यवस्था राज्य सूची में है, लेकिन अनुच्छेद 40 की वजह से केंद्र का अधूरा दखल रहा.
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इसी कड़ी में प्रधानमंत्री रहते हुए राजीव गांधी पंचायती राज के लिए 64वां संविधान संशोधन लेकर आए थे, जो लोकसभा में तो पास हाे गया, लेकिन राज्यसभा में वह पास नहीं हो सका. हालांकि 1993 में 73वें संविधान संशोधन से पंचायती राज व्यवस्था को मजबूती दी गई, जिसमें पंचायती चुनावों का ढांचा बना दिया गया. शक्ति देने की जिम्मेदारी विधानमंडल को दे दी गई तो अनुच्छेद 40 की जिम्मेदारी राज्यों को सौंप दी गई.
पंचायती राज व्यवस्था के मौजूदा हाल की बात करें तो देश के अधिकांश राज्यों में त्रि स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था है. जिसमें गांव, ब्लाॅक और जिला स्तर पर गांव के प्रतिनिधि निर्वाचित होते हैं. तो वहीं राज्यों में पंचायतों का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व है. मसलन, जिन राज्यों में विधानपरिषद है, वहां पर गांव और पंचायतों का कोटा है, लेकिन विधानसभा वाले राज्यों में गांव के मतदाता के द्वारा निर्वाचित विधायक ही गांव और पंचायतों का प्रतिनिधि है, जिसे अप्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व के तौर पर रेखांकित किया जाता है.
इसी तरह केंद्र में भी गांव और पंचायतों का अप्रत्क्ष प्रतिनिधित्व है. मसलन, गांव के मतदाता के द्वारा निर्वाचित लोकसभा सदस्य ही गांव और पंचायतों का प्रतिनिधित्व है.बेशक त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की इस प्रणाली में गांव से लेकर सदन तक गांव और पंचायतों के प्रतिनिधित्व की व्यवस्था सुनिश्चित है, लेकिन इस व्यवस्था का सच बेहद ही जटिल है.
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असल में विधान परिषद में गांव और पंचायत कोटे से निर्वाचित प्रतिनिधि गांव और पंचायतों के मुद्दों को रखने में असफल रहे हैं. वह राजनीति दल से जुड़े विषयों और एजेंडों को विधानमंडल में आगे बढ़ाते हैं. नतीजतन, आजादी के बाद से आज तक पंचायतें अपने पूरे स्वरूप में आने के इंतजार में हैं.
वहीं केंद्र व राज्यों (सिर्फ विधानसभा वाले राज्य) में बेशक सदस्यों को गांव के मतदान से निर्वाचित किए जाने की व्यवस्था है, लेकिन ये संसदीय प्रणाली में ये प्रतिनिधि गांव और पंचायतों की आवाज उठाने में असफल रहे हैं. जरूरत है कि गांव और पंचायतों के सीधे प्रतिनिधित्व की व्यवस्था राज्यों और केंद्राें में की जाए. इसको लेकर किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाॅ रामपाल जाट कहते हैं कि राज्यसभा में निर्वाचन के लिए पंचायत प्रतिनिधियों को अधिकार दिए जाएं, इससे राज्यसभा में भी गांवों और पंचायतों का सीधा प्रतिनिधित्व हो सकेगा.
संविधान ने पंचायतों को सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास की योजना बनाने के साथ ही 29 मूल विषय दिए हैं, जिसमें प्राथमिक शिक्षा लेकर कृषि, पशुपालन जैसे विषय हैं. ये 29 विषय ही पंचायतों की शक्तियां हैं, लेकिन 73वें संविधान संशोधन के बाद भी पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में ये विषय नहीं हैं.
मसलन, राज्य सरकारें ही इन 29 विषयों का क्रियान्वयन करती हैं और पंचायतों की भूमिका राज्य के विकास कार्यों के क्रियान्वयन की रह गई है. अगर किसी पंचायत को ये 29 विषय आंवटित हो तो संभावित तौर पर ग्रामीण स्तर पर प्रशासनिक योजनाओं को मजबूती मिलेगी.
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कहा जा सकता है कि पंचायतों का ये मजबूत स्वरूप ही गांव और किसान की रक्षा करेगा. इसको लेकर किसान महापंचायत के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामपाल जाट कहते हैं कि पंचायतों को 29 विषयों के अधिकार आंवटित किए जाने चाहिए.
ग्लोबल होती दुनिया में राज्यों और केंद्र में पंचायतों का सक्रिय और वाजिब प्रतिनिधित्व की जरूरत दिखाई पड़ती है. बेशक त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में केंद्र व राज्यों में पंचायतों का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व है, लेकिन ये प्रतिनिधित्व सिर्फ खानापूति नजर आता है.
नतीजतन आज भी देश में पंचायती राज व्यवस्था अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित है, जिसे गांवों से हो रहे पलायन, ग्रामीण बेरोजगारी दर, फसलों का वाजिब दाम ना मिलना जैसी समस्याओं की वजह माना जा सकता है.
अगर राज्य और केंद्र में गांवों और पंचायतों का सक्रिय प्रतिनिधित्व होने से देश के शीर्ष नीति निर्माता संस्थानों में गांवों के विषयों पर सीधी बहस हाे सकेगी. नतीजतन उसी के अनुरूप नीतियां बनेगी, जो देश के विकास को मजबूती प्रदान करेगा.
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