डॉ. रणवीर सिंह
भारत, एक कृषि प्रधान देश होने के बावजूद, अपनी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एक गंभीर चुनौती का सामना कर रहा है. कृषि भूमि का लगातार छोटा होना और उसका तेजी से विखंडन, विशेष रूप से उत्तर भारत के राज्यों में, केवल भूमि प्रबंधन से जुड़ी नहीं है बल्कि यह लाखों किसानों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति, कृषि उत्पादकता और समग्र ग्रामीण जीवनशैली को गहराई से प्रभावित कर रही है. छोटे और बिखरे हुए खेतों में खेती करने वाले सीमांत और लघु किसान अक्सर जरूरी संसाधनों, प्रभावी सिंचाई सुविधाओं और आधुनिक तकनीकी नवाचारों से वंचित रह जाते हैं, जिसके नतीजन उनकी आय में कमी, उत्पादकता में ठहराव और जीवन स्तर में गिरावट आती है.
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा किए गए अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण (NAFIS) 2021-22 के आंकड़े चौंकाने वाले हैं. सर्वेक्षण के अनुसार, उत्तर प्रदेश में औसत कृषि भूमि का आकार 2016-17 में 1.08 हेक्टेयर से घटकर 2021-22 में मात्र 0.74 हेक्टेयर रह गया है, जो लगभग 31 फीसदी की चिंताजनक कमी दर्शाता है.
इस वास्तविक स्थिति को समझने के लिए अलीगढ़ जिले के दो गांवों के किसानों के उदाहरण प्रस्तुत हैं. उत्तर प्रदेश के बनूपुरा गांव के एक प्रगतिशील किसान, रमेश यादव (उर्फ बाबा), के पास कुल 1.6 हेक्टेयर भूमि है, लेकिन यह छह अलग-अलग स्थानों पर बिखरी हुई है. इसी जिले के सिद्ध गांव के एक अन्य किसान, सुमन कुमार राय, के पास 1.5 हेक्टेयर भूमि है, जो चार अलग-अलग स्थानों पर फैली हुई है. इन खेतों के व्यक्तिगत टुकड़ों का औसत आकार मुश्किल से 0.3 हेक्टेयर है. इतने छोटे और असंगठित भूखंडों में न तो प्रभावी सिंचाई व्यवस्था स्थापित की जा सकती है और न ही आधुनिक कृषि तकनीकों का समुचित उपयोग संभव है.
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बिजनेस स्टैंडर्ड की 2012 की एक रिपोर्ट पूर्वांचल क्षेत्र की और भी गंभीर तस्वीर पेश करती है. इस रिपोर्ट के अनुसार, इस क्षेत्र के 84 फीसदी किसान एक हेक्टेयर से भी कम भूमि पर खेती करते हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 65 फीसदी है. यह दर्शाता है कि उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में भूमि का विखंडन राष्ट्रीय औसत से भी कहीं अधिक गंभीर स्तर पर पहुंच चुका है.
भूमि के विखंडन का प्रभाव केवल कृषि उत्पादन तक ही सीमित नहीं है, यह ग्रामीण समाज और किसानों की आजीविका पर भी गहरा असर डालता है. बनूपुरा गांव के 90 वर्षीय बुजुर्ग किसान, चौधरी मिश्री सिंह, अपनी आपबीती सुनाते हुए बताते हैं कि उनके पास कुल 7 हेक्टेयर जमीन है, लेकिन यह 26 छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटी हुई है. उनका कहना है किअगर यह भूमि 4-5 बड़े हिस्सों में संगठित होती, तो खेती का प्रबंधन कहीं अधिक सरल होता और पैदावार में बढ़ोतरी संभव थी. चौधरी मिश्री सिंह को 1962 में गांव में हुई चकबंदी की प्रक्रिया आज भी याद करते हैं, जब यह वादा किया गया था कि हर 20 वर्षों में भूमि का पुनर्गठन किया जाएगा. हालांकि, बीते 60 वर्षों में इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है. विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकारें आईं और गईं, लेकिन किसी ने भी इस मूलभूत समस्या को गंभीरता से नहीं लिया.
छोटे और विभाजित कृषि भूमि स्वामित्व के कारण किसानों और कृषि क्षेत्र को कई प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. छोटे खेतों में ट्रैक्टर और अन्य आधुनिक कृषि उपकरणों के उपयोग से आर्थिक रूप से नुकसान होता है. छोटे पैमाने पर खेती करने के कारण प्रति इकाई उत्पादन लागत बढ़ जाती है, जबकि उपज कम होने के कारण किसानों की आय सीमित रहती है. बिखरे हुए खेतों में सिंचाई नहरों का निर्माण और रखरखाव मुश्किल होता है. उपज को खेत से बाजार तक ले जाने में भी अधिक समय और लागत लगती है. खेती से पर्याप्त आय न होने के कारण युवा पीढ़ी गांवों से शहरों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हो जाती है, जिससे गांवों में श्रमिकों की कमी हो जाती है और शहरों पर जनसंख्या का दबाव बढ़ता है.
इस गंभीर समस्या से निपटने और किसानों की स्थिति में सुधार लाने के लिए कई सार्थक कदम उठाए जा सकते हैं. सरकार को छोटे और सीमांत किसानों को तकनीकी सहायता, रियायती कृषि ऋण और आधुनिक कृषि उपकरण उपलब्ध कराने चाहिए. उच्च गुणवत्ता वाले बीज, उर्वरक और प्रभावी सिंचाई सुविधाओं तक उनकी सुलभता सुनिश्चित की जानी चाहिए. किसानों को एकजुट करने और सामूहिक शक्ति प्रदान करने के लिए किसान उत्पादक संगठनों (FPO) और सहकारी समितियों के गठन को प्रोत्साहित करना चाहिए. यह उन्हें सामूहिक रूप से संसाधनों को साझा करने, आधुनिक तकनीकों को अपनाने और अपनी उपज के लिए बेहतर मूल्य प्राप्त करने में मदद करेगा.
ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों, मंडियों, कुशल परिवहन व्यवस्था और सिंचाई नेटवर्क को सुदृढ़ बनाना अत्यंत जरूरी है. यह न केवल कृषि उत्पादकता को बढ़ाएगा बल्कि किसानों को अपनी उपज को आसानी से बाजार तक पहुंचाने में भी मदद करेगा. गांवों में स्थानीय रोजगार के अवसर पैदा किए जाने चाहिए. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं और अन्य आवश्यक सुविधाएं गांवों में सुलभ कराई जानी चाहिए ताकि ग्रामीणों को बेहतर जीवन की तलाश में शहरों की ओर पलायन न करना पड़े.
भूमि के विखंडन की समस्या का एक सबसे व्यावहारिक और दीर्घकालिक समाधान चकबंदी है. चकबंदी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसानों की बिखरी हुई कृषि भूमि को एकजुट करके उन्हें समुचित आकार और एक ही स्थान पर केंद्रित किया जाता है. इसके कई लाभ हैं. जब किसानों के खेत एक ही स्थान पर होते हैं, तो भूमि संबंधी विवादों की संभावना काफी कम हो जाती है. और संगठित खेतों में सिंचाई नहरों का निर्माण और आधुनिक कृषि मशीनरी का उपयोग अधिक कुशल और लागत प्रभावी होता है.
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चकबंदी की प्रक्रिया में गांवों में स्कूल, अस्पताल, सड़कें और अन्य सार्वजनिक सुविधाओं के निर्माण के लिए आसानी से जमीन उपलब्ध हो पाती है. यह समय की मांग है कि चकबंदी को एक मजबूत राज्य नीति के रूप में फिर से लागू किया जाए. किसानों को इस प्रक्रिया के लाभों के बारे में जागरूक करना और उन्हें इसमें सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना जरूरी है. (लेखक को ग्रामीण विकास, पशुपालन और नीति निर्माण प्रबंधन में चार दशकों का अनुभव है.)
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